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मुखवस्त्रिका |
है । और व्यर्थ के बाद विवाद में धर्म का खून कर रहे हैं क्या यह अच्छे विचारा का सुबूत हैं ! और एक ही सूत्र में ऐसा लिखा हो सो बात नहीं है । और भी कई सूत्रों में इस के प्रमाण विद्यमान हैं । सामायिक सूत्र में लिखा है
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मुहरांतगेण कणोडियाए, विणा बंधह जे कोवि सावर धम्मकिरियायं करंति तस्स एका रस्स सामाइयस्वर्ण पाय च्छितं भवति । अर्थात् यदि कोई श्रावक मुखवस्त्रिका को कानों में वांधे विना ही धर्म क्रिया करेतो उसके प्रायश्चित में उसको ११ (एकादश) सामाई [ सामायिक ] करना पड़ता है । श्रतश्रावकों को धर्मक्रिया करते समय मुखवस्त्रिका मुख पर अवश्य बांधनी चाहिए। श्रव देखिएगा । जब श्रावकों के लिए ऐसी धर्म्माज्ञा है तो साधु उससे विमुख कैसे रह सकते हैं । वल्कि गार्हस्थ्य जीवन में तो धर्म्म क्रिया का समय नियत है और इसीलिए श्रावक को धर्म क्रिया के समय ही मुखवस्त्रिका बांधने का आदेश किया है । परन्तु साधु जीवन में तो हर समय धर्म क्रिया में प्रवृत्त रहना पड़ता है । और ऐसी दशा में मुखवस्त्रिका साधुओं को हर समय वांधनी चाहिए | परंतु मन्दिर मार्गी साधु महात्मा हर समय तो दूर किसी भी समय नहीं - बांधते है तो क्या उनको यही उचित है कदापि नहीं ! त्रिकाल में भी नहीं ??
मन्दिर मार्गीय भाइयों का यह भी कथन है कि, मुखवस्त्रिका जीव हिंसा निवृत्यर्थ नहीं है पुस्तक पर ध्रुक न गिर जाय इसलिए पुस्तकावलोकन के समय मुख के थाड़ी रख लेना चाहिए । सो उनका यह कहना असत्य है । मुखवस्त्रिका जीव हिंसा निवृत्यर्थ है इस का प्रमाण भी चाहिए अन