Book Title: Sachitra Mukh Vastrika Nirnaya
Author(s): Shankarmuni
Publisher: Shivchand Nemichand Kotecha Shivpuri

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Page 68
________________ [३२] मुखवास्त्रिका। उन्ही महाशय ने उक्त ग्रन्थ की द्वितीयावृत्ति में पुनः यों कहा है:" मुखे बांधी ते मुहपति, हेटे पाटो धारि । अति हेठी डाढ़ी थई; जोतर गले निवारी ॥ ३॥ एक काने धज सम कही, खमे पछेड़ी ठाम । केडी खोशी कोथली, नावे पुण्य ने काम ॥ ४ ॥ अर्थात् मुखवस्त्रिका तो वही है जो मुंहपर वांधी जाय । यदि वह मुख के नीचे रहे तो पाटे के समान होजाती है और ज्यादह नीची लटकी रहे तो दाढी की समता करने लगजाती है। और गले में होतो 'जोत । सी दिखाई देती है। एक कान में लटकावे तो वह ध्वजा के सदृश होजाता है। कंधे पर रक्खी जाय तो वह पछेवड़ी सी दिखाई देगी। और यदि कमर में खोसी जायगी तो कोथली कहलाएगी और इस तरह अन्य स्थानों में रखने से अर्थात् मुंहपर न बांधने से उसका पुण्य भी नहीं होगा। श्रव हम अन्य मतावलम्बियों के ग्रन्थों के प्रमाण देकर भी इसकी सत्यता बताना चाहते हैं। अन्यमतावलम्बियों के धर्मग्रन्थों से भीप्रमाण ऊपर हम जैन ग्रन्थों के अनेक प्रमाण देकर पाठकों का संदेह दूर कर चुके है । परन्तु अब हम अन्य धर्मावलम्बियों के ग्रन्थों से भी प्रमाण उद्धत करते हैं। जो विपय सर्व साधा रण पर विदित होता है उसका उल्लेख अन्य धम्मों के ग्रन्थों में भी पाया जाता है, यही बात मुखवस्त्रिका के सम्बन्ध में भी है अर्थात् जैन श्वेताम्बर मखवस्त्रिका मुंहपर वांघते हैं इसको सर्व धर्मावलम्बी जानते हैं।

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