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मुखवविका।
मुनि लब्धि विजयजी महाराज ने अपनी बनाई हुई "हरिवल मच्छी के रास" नामक पुस्तक की सत्ताईस वीं ढाल के दोहे में इस प्रकार कहा है
"सुलभ बोधी जीवड़ा, मांडे निज खटकर्म । साधु जन मुख मुँहपत्ति, बांधी है जिन धर्म ॥
इस दोहे में कितने खुले शब्दो में मुंहपर मुखवीस्त्रका वांधने का कथन किया है ? क्या अब भी किसी को कोई शंका हो सकती है कि मन्दिर मार्गी मुखवस्त्रिका को मुंहपर वांधने का समर्थन नहीं करते? कभी नहीं। यही क्यों
और भी बहुत से प्रमाण है। देखिएगा | श्री हेमचन्द्राचार्यजी के रचनानुसार उदयरत्नजी ने अपने भाषा काव्य में ६६ वीं ढाल की चौथी गाथा में कहा है:" मुँहपत्तिए मुखवांधीरे, तुम वेशो छो जेम गुरुणी जी तिममुखड्दुबाईनेरे, विसाएकेम गुरुणीजी । साधु विन संसार मेरे, क्यारे को दीठा क्या गुरुणीजी"
यदि पहले मन्दिरमार्गियों में मुखवस्त्रिका मुखपर बांध ने की चाल न होती तो इस प्राचीन रचना में " मुखपतिए, मुखवांधीरे' का वर्णन नहीं होता । वल्कि इसके स्थान में "मॅहपत्तिए हाथ राखीरे" का वर्णन किया जाना । और भी सामाचार्य के शिष्य विनयचन्द्रजी ने निजकृत "सुभद्रासती के पंच ढालिया नाम्नी पुस्तिका में इस प्रकार कहा है"तू जैन यति गुरु माने छे, तूं तप करे बहु छाने छे। रहता मे ले वाने छे ।। २ ।।सु. ते भिख्या ले घर अण जाणजी, नित पीता धोवण पाणी।