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मुखवत्रिका |
उपरोक्त प्रमाणों ही से इस विवादग्रस्त प्रश्न को छोड़ नहीं रहा हूं। और भी कई प्रमाण हैं उन सबको उद्धृत किये विना पाठको और ( यदि न्याय दृष्टि से मानेंगे तो ) मन्दिर मार्गी भाईयों को सन्तोष नहीं होगा । देखिये ! दीक्षाकुमारी द्वितीय भाग पृष्ठ २७४ पर अति है ।
" तमे तप गच्छ ना साधु छो । श्रने मूर्ति ने माननारा छो तो पण तमारा क्रिया मार्ग नी अन्दर अनेक जात नी सामा चारी प्रवर्ते छे । कोई मुखे मुखवस्त्रिका वांधेछे, ने कोई नथी बांधता " इस से भी यह सिद्ध है कि खास मन्दिर मार्गियों में भी बहुतों में मुखवस्त्रिका मुख पर बांधने का प्रचार है, और बहुतों में नहीं ।
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और पहले मूर्ति पूजक साधु और गृहस्थ सव ही मुखवस्त्रिका को मुखपर बांधते थे इसके बहुत से प्रमाण खरतर गच्छ में मिलते हैं । कृपाचन्द्र सूरि व्याख्यान देते समय मुख पर मुखवस्त्रिका बांधते हैं । और पतासीनी पोल दोसी वाहा अहमदावाद, डेलानी संप्रदाय के धर्म विजयजी पण्यास, माणविजयजी दादाजी की संप्रदाय के यद्वा सिद्धिविजयजी श्राचार्य और मेघविजयजी पण्यास श्रादि संवेगी साधु व्याख्यान देते समय अव भी मुखवस्त्रिका वांधते हैं । यदि मुखवस्त्रिका मुख पर नहीं बाधी जाती तो खास मन्दिर मार्गियों में ऐसा प्रचार कैसे हो सकता था ?
मन्दिर मार्गियों में जिनको दया की कुछ कीमत मालूम हैं वे श्रव भी मुखवस्त्रिका को मुंह पर बांधना नहीं छोड़ते हैं । और जिनको अपने वेप विन्यास का ध्यान है और शान