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मुखवास्त्रिका।
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आरै सौन्दर्य के उपासक है वे दया की परगह नहीं करते और अपनी जिदसे मुखवस्त्रिका को हाथ में रखत है। परन्तु मुखवस्त्रिका को हाथ में रखने के लिए उनके पास अव कोई जवाब नहीं है।
उनके अर्थात् मन्दिर मार्गियों के कई आचार्यों ने भी सूत्रों श्रादिका ही अनुकरण करके पीछे से जो ग्रन्थ निर्माण किए हैं, उनमें भी मुखवस्त्रिका को मुखपर बांधे रहने का श्रादेश किया है। जैसा कि, देवसूरि, प्राचार्य ने स्वचित समाचारी ग्रन्थ में लिखा है "मुखवत्रिका प्रति लेख्य मुखे वध्वा प्रति लेखयति रजोहरणम्" अर्थात् मुखवत्रिका का प्रातलेक्षण करके मुखवस्त्रिका को मुख पर बांध कर रजोह रण की प्रतिलेक्षणा करना चाहिए ।
और इन्ही के प्रवीचार्य उद्योतसागरजी ने अपनी रचना " श्रीसम्यकत्व मूल वार व्रतनी टीप" के पृष्ठ १२१ पर या लिखा है कि, " तीजो चल दृष्टि दोष ते सामीयक लईने पछी दृष्टि ने नाशिका ऊपर राखे अने मन मा शुद्ध श्रुतोप योग राखे, मौन पणे ध्यान करे तथा जे सामायिक वंत ने शास्त्र अभ्यास करवो होय तो जयणा युक्त थई मुंहपत्ति मुखे बांधी ने पुस्तक ऊपर दृष्टि राखीने भणे तथा सांभले"
पाठक महाशय । इसमें श्रावकों को सुखवत्रिका मुखपर बांधने की प्राज्ञा दी है, जैसा कि, पहले भी एक उदा हरण में प्राचुका है। इसको सब कोई समझ सकते है कि, एक धर्म गुरु जिस बात का अपने थावकों को उपदेश करे उसका आचरण स्वयम् श्राचार्य होकर नहीं करे यह कैसे