Book Title: Sachitra Mukh Vastrika Nirnaya
Author(s): Shankarmuni
Publisher: Shivchand Nemichand Kotecha Shivpuri

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Page 58
________________ [२२] मुखवस्त्रिका। किया अर्थात मुह बांधने के लिए कह दिया तो क्या इस से यह सिद्ध होजाएगा, कि मुंह पर मुखवास्त्रिका बंधाई थी कमी नहीं! त्रिकाल में भी नहीं ?? भाइयों ? ऐसी रेत की दीवार से दुर्ग खड़ा नही किया जासकता। श्रापकी यह श्राशा दुराशा मात्र है और इस में श्राप को कभी सफलता नहीं मिल सकती। नाक बंध करने के स्थान पर प्राय. मुंह वांधने के लिए कह देने की आदत लोगों की आधुनिक काल से जारी हो गई हो सो बात नहीं है , प्राचीन शास्त्रों में भी इस का प्रमाण मिलता है । देखिये ज्ञात सूत्र के नव में अध्याय में कहा है. ____ "तपण ते मागदिया दारए नेणं अशुभेणं गंधणं अभिभूया समाणं सहं नुत्तरक्षेहिं पासायं पेहेई" अर्थात उस मागदिक गाथापति के पुत्र न उस असाधारण एवम् तीव्र गन्ध से श्राकुल होकर (प्रासायं) मुखको ढांक दिया । उस स्थान पर आप शब्दार्थ पर उतर पड़े तो असंगति के दोषी हुए विना नहीं रहेंगे क्योकि सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि, दुर्गन्ध की रक्षा नाक द्वाग हो सकती हे न कि सुख द्वारा । आपके प्रमाण भूत उपरोक्त सूत्र के मन वाधन के वाक्य का अर्थ भी अवतो श्राप समझ ही गए होंगे ॥ पाठको? जिन्हें सत्य और न्याय का पन है और शास्त्र वेत्ता हैं वे तो श्रव मान ही लेंगे कि, मुखस्त्रिका का मुख पर हो गंधना चाहिए। और जो दगग्रही और व्यर्थ के हटी है उनको तो कप्ट न की हमारी भी इच्छा नहीं है। वता अपनी अपनी डफली और अपना अपना राग अलापा करें । इस विश्राम में मैंने सन्दिर म गं.य माइयों के प्रमाग का पूर्ण रूप

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