Book Title: Sachitra Mukh Vastrika Nirnaya
Author(s): Shankarmuni
Publisher: Shivchand Nemichand Kotecha Shivpuri

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Page 53
________________ मुखवत्रिका। [१७] कथा करने वाले के मुंहमें श्रागिरी उसने शीघ्र ही थूक दिया। उसका अभिप्राय श्रोताओं ने यह समझा कि, कुत्ते के कान फड़ फडाने पर थूकना चाहिए । और कथा करने वाले का सवने अनुकरण किया । अर्थात् थूका । कथा भट्ट महान् दंभी था, उसने किसी को थूकने का कारण नहीं समझाया, तव से यह प्रथा प्राचलित हो गई कि, कुत्ते के कान फड़ फड़ाने पर लोग थूकते हैं। आज उन्हें थूकने से मना करते है तो परंपरा के अधभक्त नहीं मानते हैं और कहते हैं, हम तो जैमा पहले से करते पाए हैं, उसे नहीं छोड़ेगे। परन्तु इस में बुद्धिमानी नहीं है। मुझे आज कोई दलीलों से सिद्ध करके किसी बात को समझा दे तो मैं कालान्तर की ग्रहण की हुई वात को एक क्षण भर में छोड़ देने के लिए प्रस्तुत हूं । इस ही प्रकार मन्दिरमार्गी भाइयों से प्रार्थना है कि, वे भी मुखवस्त्रिकाको हाथ में रखने की हटको छोड दें। यह तो मुख पर बांधने की ही वस्तु है। हाथ में रखने की नहीं, न यह हाथ में शोभा ही पाती है। क्योंकि कोई भी पदार्थ अपने स्थान के विना शोभित नहीं होता। कहा है “ स्थान एव हि योज्यन्ते, भृत्याश्चा भरणानि च । नहि चूड़ामणिः पादे, नूपुरं मस्तके यथा" ॥ अर्थात् भृत्य और भूषण को अपने २ स्थान पर ही रखने चाहिए । चूड़ा मरिण ( बोर ) पैर में और नूपुर मस्तक पर धारण नहीं किया जा सकता । किसी कविने और भी कहा है "मुकुटे रोपित. काचः, चरणा भरणो मणि' । नहि दोपो मणेरस्ति, किन्तु साधोर विक्षता' ॥ अथात् मुकर में तो कांच का टुकड़ा और पैर के भूपण मे मणि लगाई जाय

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