Book Title: Sachitra Mukh Vastrika Nirnaya
Author(s): Shankarmuni
Publisher: Shivchand Nemichand Kotecha Shivpuri

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Page 54
________________ [१८] मुखस्त्रिका। - तो इस में मणिका दोप नहीं है। बल्कि जड़िया की बुद्धिमत्ता है। अर्थात् मूर्खता है। कविका भाव यह है कि, जो पदार्थ जहां रहना चाहिए उसको वहा ही रखना योग्य है,अन्यथा वह पदार्थ भी निकम्मा होजाएगा और योजक की भी नासमझी प्रकट होगी यही वात मुखवस्त्रिका के सम्बन्ध में भी है । उसको हाथ में रखने से न तो उसका यह (मुखवस्त्रिका) नाम ही शोभित होता है न उस से कुछ लाभ ही है। क्योंकि मुखर. स्त्रिका विशेपतः जीवहिंसा निवृत्यर्थ मुख पर वाधी जाती हैं। और मुखपर बंधी रहने से उससे और भी कई लाभ है जिन्हें में आगे चल कर बताऊंगा । ऐसी दशा में यदि उसे मुखपर न वाधी गई तो उससे क्या लाभ हुआ और उसकी मुखवास्त्रका सक्षा भी कैसे हो सकती है। वह तो दस्ती रुमाल है। अजा के गले में लटकने वाले स्तन से न तो दूध ही निकलता है। न गल की शोभा ही। इस ही प्रकार यह मन्दिर मार्गी भाइयों की मुखवीत्रका, भी निरर्थक सी ही है। क्या में श्राशा करूं कि, मन्दिर मार्गीय महानुभाव मेरी सच्ची और वेदाग दलीलों को हृदय में स्थान देंगे और उनका निर्णय मुझ तक पहुंचावगे? कदाचित ऐसा हो? मन्दिर मार्गीय भाई प्राय एक ही प्रमाण मुखवस्त्रिका को हाथ में रखने की दलील के लिए पेश किया करते है वह क्या है ? और किस मूल का है ? उस का स्पष्टी करण कर देना भी बहुत आवश्यक प्रतीत होता है क्योंकि, उनके प्रमाण का उत्तर दिए बिना सत्य और झूठ का निर्णय नहीं होमकता है। अच्छा तो उसका स्पष्टी करण भी सुन लीजिए। वे लोग कहत हैं कि, 'दु ख विपाक, मूत्र के द्वितीय स्कन्ध में लिखा है। ...

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