Book Title: Sachitra Mukh Vastrika Nirnaya
Author(s): Shankarmuni
Publisher: Shivchand Nemichand Kotecha Shivpuri

View full book text
Previous | Next

Page 37
________________ मुखवत्रिका । हिए! और सो भी इस अवस्था में की उनके थोड़ेसे संयम और कष्ट से लाखों जीवों की प्राण रक्षा हो सकती हो। इसका उत्तर वे यदि 'अवश्य करना चाहिए' इन शब्दों में देंगे तो इसमें उनके शिरपर जीव रक्षा का कितना बड़ा दायित्व प्रा पड़ेगा। इस को स्वयम् सोच सकते हैं। और इस का उत्तर उस समय उनके पास क्या रह जाएगा जबकी उन दया के लाइलों को यह सुझाया जायगा कि, वे पूर्ण रुप से दया नहीं कर रहे हैं, और जानते हुए भी प्रस्ताव धानी और उपेक्षा की शरण लेरहे हैं। कुछ भी नहीं ? भाइयों ? इस श्राकाशके भीतर असंख्याति असंख्य ऐसे विभी है कि, जो हमारी दृष्टि में नहीं पाते और चलते फिर. ते और उढ़ते रहते हैं। उन में से हम कितनों ही को 'सुक्ष्म दशक' यत्र [खुर्दवीन द्वारा देख भी सकते हैं। फिर भी उन सव को यह हमारे चमड़े के नेत्र नहीं देख पाते । उन को तो हम शान द्राष्ट से ही देख सकते हैं। और उनका अस्तित्व सम्पूर्ण मतावलम्बी मानते है। ऐसी दशा में उनकी रक्षा करना भी श्रा वश्यक माना गया है । और जव रक्षा करना आवश्यक माना जाता है तव उसके साधनों की भी खोज होती है और वनते हैं क्योंकि "श्रावश्यकताही आविष्कारों की जननी है।" श्राकाश के भीतर अपरिमित संख्या में जो जीव हैं उन का खून हमारी असावधानी से होता है। हम चलते फिरत हाथ हुलाते और बोलने में उन्हें मार डालते हैं। और उस का पश्चात्ताप हसको तनिक भी नहीं होता है। इस में से कितने ही तो वे लोग है जो अपने थोड़े से सुख और असुविधा के पीछे इस ओर ध्यान नहीं देते हैं । और कितने ही

Loading...

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101