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मुखवास्त्रका।
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उपवास ) के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में मूत्र स्वध्याय की। द्वितीय प्रहर में ध्यान किया और तृतीय प्रहर में 'मुह पोत्तियं' (मुखवस्त्रिका) और पात्रों की प्रमार्जना की।
और ज्ञाता धर्म कथाह्न सूत्र” के सोलहवे अध्याय म भी 'मुहपोत्तियं' शब्द की सिद्धि के लिए जिनेश्वर ने प्रति पादन किया है। - उस ही प्रकार 'उपासकदशाग-अन्तकृताङ्ग, 'अणुत्तरोव' वाई श्रादि सूत्रों में भी कई स्थलों पर इस का स्पष्ट रूप से वर्णन है।
इन प्रमाणों से पाठकों को भी श्रव विश्वास होगया होगा कि, मुखवस्त्रिका को मानने में तो किसी को आपत्ति नहीं है । आपत्ति है तो केवल मुंह पर बांधने में । और वह भी किस को केवल श्वेताम्बरीय मन्दिर मागीय साम्प्रदायिक को? और इस का वाद विवाद कालान्तर से हो रहा है। संसार के सामने इस विषय को वास्तविक चोला पहनाने का प्रयत्न अाज तक किसी ने नहीं किया। जिस किसी ने भी इस पर लेखनी उठाई पक्ष पात को एक ओर रख कर नहीं। अपने अपने मत की ओर खींच कर अपना पाण्डित्य प्रदर्शित किया है । अथवा वितण्डावाद द्वारा अपनी वाणी को दृपित किया है । अतः श्रावश्यकता समझ कर श्राज इस में में अग्रगामी हुआ हैं । मे इसका वर्णन करन में तटस्थ रहगा । और पनपात रहित होकर इस की सच्ची समालोचना करूगा।
संभव है, सत्य को पसंद नहीं करने वाले कितने ही महा. नुभावों को मेरी कड़ी पालोचना अखरे । परन्तु मुझे उनक