Book Title: Sachitra Mukh Vastrika Nirnaya
Author(s): Shankarmuni
Publisher: Shivchand Nemichand Kotecha Shivpuri

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ मुखबास्त्रका । [११] प्रसन्न ओर अप्रसन्न होजाने की परवाह ही क्या है ? मुझे तो सत्य की परवाह करनी चाहिए कि, जिस के बलपर सं. सार स्थिर है । मुखवस्त्रिका मुह पर ही बंधना चाहिए। यदि इसे मुह पर न वांधी जावे तो न तो इस से कोई लाभ ही हो सकता है। और न इस का नाम मुखवस्त्रिका, रखने की ही आवश्यकता पड़ती। यदि वुद्धि द्वारा इस के नाम पर विचार किया जावे तो इस की असलियत समझ में आजाना कुछ कठिन नहीं है। काम से नाम की रचना होने की प्रथा आज से नहीं है। सृष्टि के आदि काल से है। राजा इस लिए कहते हैं कि, वह प्रजा को रज्जन करता है और उसे हीभूपाल इस लिए कहते है कि, वह पृथ्वीको पालता है। पानी पीनेके भाजनका गलव्यास (जिसका अपभ्रश गिलास है ) इस लिए कहते हैं कि, उसका गला चौड़ा है। ऊपर के कमरे को अट्टालिका । अट्टश्रालिका ) इस लिए कहते हैं कि, वह ऊंचा है। पगड़ी को शिरोवेष्टन इस लिए कहते हैं कि, वह शिर पर लपेटने की वस्तु है । अंगरखी का नाम अंगरक्षिका इसीलिए हुआ कि वह अंग की रक्षा करती है । पगरखी का नाम पद रक्षिका इसीलिए पड़ा है कि, वह पद की रक्षा करती है। हरिणको मृग गति इस लिए पुकारते हैं कि, वह बहुत तेज दौड़ता है। वन्दरों को शीखामृग इस लिए कहते हैं कि, वे वृक्ष की साखों पर भागते है । क्षत्रियों को राजपूत (राज पुत्र) इस. लिए कहते हैं कि, वे राजा के पुत्र है बहलों को नीर धर इस लिए कहते हैं कि, वे जल को धारण करने वाले है । कुंचों को पयोधर इस लिए कहते हैं कि, वे दुध धारण करते हैं। महलों का नाम 'महालय' इस लिए है कि, वे वडे घर

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101