Book Title: Sachitra Mukh Vastrika Nirnaya
Author(s): Shankarmuni
Publisher: Shivchand Nemichand Kotecha Shivpuri

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Page 48
________________ [१४] मुखस्त्रिका। लाया जायगा तो पात्र के विना नहीं श्रासकता है परन्तु पात्र के लिए कहने को कोई आवश्यकता नहीं रहती है । इस ही प्रकार 'रोटी खाओ, इस शब्द में से यह अर्थ नहीं निकलता है कि, हाथ से लेकर मुह से खाया, दन्तों से चबाओ । परन्तु जिस के हृदय के नेत्र हैं वे समान ही लेते है कि, हाथ के द्वारा तोड़कर रोटी मुखसे ही खाई जाती है। और कोई सा धन नहीं है । और भी बताता है कि, कोई किसी को यह श्रादेश करे कि, घर जाओ तो क्या जानेवाले को जूते पहन कर पावसे चलने की बात भी समझानी पड़ेगी। कभी नहीं। रथी अपने साथी को रथ लाने की आज्ञा देगा तो रथ लायो, केवल इतना भर वोलेगा इसके शब्दार्थ में घोड़े जोत कर लाश्रो इतना मतलव नहीं निकलता। परन्तु रथ घोड़े जोतकर ही लाया जाता है । अत. सारथी को इतना कहने की आवश्यकता नहीं है। अर्थात् रथलाओ, इसी का अर्थ घोड जोतकर लानेका होजाता है। ऐसे सहस्रों सांकेतिक शब्द है जिनके कहत ही उनका सारा प्राशय लोगों की समझ में शीघ्र ही श्राजाता है । चैसे ही शब्दों में से 'मुखवस्त्रिका शब्द भी है और इसका अर्थ भी लक्षणा से यही होगा कि, मुह पर बाधनेका वस्त्र । यदि सम्पूर्ण जगत् तार्किको से ही भरा हुआ होतो संसार में कोई कार्य ही नहीं हो सकता । और जीवन भारवत होजाय । तर्क हरवान में हराय में हो तो सकती है। परन्तु वात २ पर तर्क करना अच्छे और सच्चे श्रादमियों का काम कदापि नहीं है । सभ्य संसार ने ऐसे मनुष्यों की गणना छि द्रान्वेपियों में की है। ससार में कोई किसी का पन ग्रहण

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