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ऋषि मंडल-स्तोत्र-भावार्थ
आयंताक्षरसंलक्ष्यमक्षरं, व्याप्य यस्थितं ॥ अग्निज्वालासमं नाद बिन्दुरेखासमन्वितं ॥ १ ॥
भावार्थ-अक्षरोंके आदिका अक्षर (अ) और अक्षरों के अंतका अक्षर (इ) इन दोनो अक्षरोंके बीचमें स्वर व्यंजन के सब अक्षर आजाते हैं। इन अक्षरोंको लिखकर अन्ताक्षर (ह) को अग्निज्वाला जो कि रकारमें मानी गई है (र) उसमें मिलाना ओर उसके मस्तक उपर अर्धचन्द्राकार चिन्ह कर विन्दु सहित करना इस तरह करनेसे ( अहं ) बनता है। अग्निज्वालासमाक्रान्तं-मनोमलविशोधकं ॥ देदीप्यमानं हृत्पद्मे,-तत्पदं नौमिनिर्मलं ॥२॥ ___ भावार्थ-अर्ह शब्द अग्निज्वालाके समान प्रकाशमान है, और मनके मैलको अलग करनेवाला है, जिससे यह देदीपायमान है, अतः एसे परमपद अहं को हृदयकमलमें स्थापित कर निर्मल चित्तसे मन वचन कायाकी एकाग्रतासे अहं को नमन करता हूं। अहमित्यक्षरं ब्रह्मवाचकं परमेष्ठिनः ॥ सिद्धचक्रस्य सद्बीजं-सर्वतः प्रणिदध्महे ॥३॥
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