Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 3
Author(s): Kasturchand Kasliwal, Anupchand
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur
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२६. नाथूराम
लमेचू जाति में उत्पन्न होने वाले नाथूराम हिन्दी भाषा के अच्छे विद्वान थे। ये संभवतः १६ af शताब्दी के थे। इनके पिता का नाम दीपचंद था । इन्होंने जम्बूस्वामीचरित का हिन्दी गद्यानुवाद लिखा है | रचना साधारणतः अच्छी है ।
३०. निरमलदास
भावक निरमलदास में पंचायपान नामक अन्थ की रचना की थी । यह पंचतन्त्र का हिन्दी पद्यानुवाद है। संभवतः यह रचना १७ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में लिखी गयी थी क्योंकि इसकी एक प्रति संवत् १७५४ में लिखी हुई जयपुर के ढोलियों के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। रचना सरल हिन्दी में है तथा साधारण पाठकों के लिये अच्छी है ।
३१. पद्मनाभ
पद्मनाभ १५-१६ वीं शताब्दी के कवि थे । ये हिन्दी एवं संस्कृत के प्रतिमा सम्पन्न विद्वान् थे इसीलिये संघपति डूंगर ने इनसे बावनी लिखने का अनुरोध किया था और उसी अनुरोध से इन्होंने संवत् १५४३ में बावनी की रचना की थी। इसका दूसरा नाम डूगर की बावनी भी है। बावनी में ५४ है । भाषा राजस्थानी है । इसकी एक प्रति अभी जयपुर के ठोलियों के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध हुई है लेकिन लिखावट विकृत होने से सुपाय नहीं है। बावनी अभी तक अप्रकाशित है ।
३२. पन्नालाल चौधरी
जयपुर में होने वाले १६-२० वीं शताब्दी के साहित्यकारों में पन्नालाल चौधरी का नाम उल्लेखनीय है । ये संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी के अच्छे विद्वान थे। महाराजा रामसिंह के मन्त्री जीवनसिंह के ये गृह मन्त्री थे। इनके गुरु सदासुखजी काशलीवाल थे जो अपने समय के बहुत बड़े विद्वान थे। यही कारण है कि साहित्य सेवा इनके जीवन का प्रमुख उदेश्य हो गया था । इन्होंने अपने जीवन में ३० से भी अधिक ग्रन्थों की रचना की थी। इनमें से योगसार भाषा, सद्भाषितावली भाषा, पारढरपुरांश भाषा, जम्बूस्वामी चरित्र भाषा, उत्तरपुराण भाषा, भविष्यद संचरित्र भाषा उल्लेखनीय है । सद्भांपितावलि भाषा आपका सर्व प्रथम ग्रन्थ है जिसे चौधरीजी ने संवत् १६१० में समाप्त किया था । प्रथ निर्माण के अतिरिक्त इन्होंने बहुत से ग्रंथों की प्रतिलिपियां भी की थी जो आज भी जयपुर के बहुत से भण्डारों में उपलब्ध होती हैं ।
३३. पुण्यकीसिं
गच्छ
एवं युगप्रधान जिनचंद्रसूरि के शिष्य थे । तथा ये सांगानेर ( जयपुर ) के रहने वाले थे । इन्होंने पुण्यसार कथा को संधत. १७६६ समाप्त किया था । रचना साधारणतः अच्छी है।