Book Title: Pratishthakalpa Anjanshalakavidhi
Author(s): Sakalchandra Gani, Somchandravijay
Publisher: Nemchand Melapchand Zaveri Jain Vadi Upashray Surat
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अञ्जन
प्रस्तुत प्रत अंगे कंइक प्र. कल्प
श्री जिनबिंबमां स्थापना निक्षेपे अहंभाव-आर्हन्यनी स्थापना करवानुं परमोच्च कोटिन विधान छ-"अंजनशलाका-प्राणप्रतिष्ठा." ॥२२॥ 18| ए विधान अंतरंगभावविशुद्धिथी वासित हृदय न बने त्यां सुधी शकय नथी. भावविशुद्धि उत्पादक बळ छे परमात्मा प्रत्येनो संपूर्ण
समर्पणभाव. ए कंह क अंशे प्रकटे छे · विशुद्ध विधि-विधान' द्वारा. काळने अनुसार अंजनशलाकाना विधानमा संक्षेप के विस्तार थतो रह्यो छे. छतां य सूक्ष्मदृष्टिथी अवगाहन करता जणाय छे के तेना प्राणभूत हार्दमां क्यारे पण फरक पड्यो नथ'.
पूर्वना काळमां ज्यारे आवा विधान थता त्यारे ते समये विद्यमान, व्यक्ति-विशेषतया विशिष्ट एवा पू. श्री हरिभद्रसूरिकृत, श्री | हेमचंद्रसूरिकृत, बादिवेताल श्री शांतिचंद्रसूरिकृत, श्री तिलकाचार्यकृत, श्री मानतुंगसूरिकन आदि विविध प्रतिष्ठाकल्पमांथी यथारुचि एकाद स्वीकारी ते रीते विधान करावता. पाछळथी सुबोधा (चान्द्रीय) समाचारो प्रमाणे संक्षिप्त अंजनशलाका विधिनो पण उपयोग थतो. तेथी ते सर्वनो समन्वय जरूरी हतो. ते भगीरथ कार्य सच्चारित्रचूडामण, गोतार्थशिरोमणि महोपाध्यायजी श्रीमत्सकलचंद्रजी गणिवरे करी पूर्वाचार्योनी कृतिना आधारे एक सळंग 'प्रतिष्ठाकल्प'नी भेट धरी. आज त्रण त्रण सैका पसार थवा छतां य एज ग्रंथ सर्वमान्य रहेता सर्वत्र विधानैकय जळवाइ रह्यं छे...
ते पूज्य महोपाध्यायश्रीनी उपस्थितिनों समय के सालनो चोकप्त उल्लेख मळतो नथ'. प्रस्तुन ग्रंथ कया समयमा भने स्थळमां बन्यो तेनी पण बोकस हकीकत मळो आवतो नथी. परंतु तेभोश्रीनी केटनी कृतिओ हस्तलिखित प्रतोमांधी मळे छे. तेना आधारे
॥२२॥
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