Book Title: Pratishthakalpa Anjanshalakavidhi
Author(s): Sakalchandra Gani, Somchandravijay
Publisher: Nemchand Melapchand Zaveri Jain Vadi Upashray Surat
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अञ्जन
प्र. कल्प
॥२५५॥
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इसाने दर्शन चारित्रपद नैरत
भजो हुँ, वले हुं०,
एहवा
श्री सिद्धचक्रने हु०,
स्नात्र करो बहु भक्तिथी हुँ, ए किरिया चोथे दिने हुं० जे महापूजा करे रंगथी हुं०,
अग्निकुणे ज्ञान वायु वले तप
पूजीजे
सुरभी
पछे देववंदनविधि
करे
ते
प्रधान हुं० मान हु०
खुसालसा उजमाल
पामे मंगळमाल
( ढाल ७ ॥ )
(वे वे मुनिवर वरण पांगर्याजी - ए देशी ॥ ) पांच दिन एकिरिया कीजीये जी, श्रीगुरुवयणतणें अनुसार रे, भैरव आदे सासनदेवता जी, पेहेलां एनमीयें नाम संभार रे
द्रव्य हुं०
भव्य हुं०
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८
समकीतदाय महापूजा करो जी....
तदनंतर करीयें शांति घोषणाजी, अरिहंत आदे मंगल चार रे, विधिकारक ते वज्रपंजर भणे जी, कीजे थानकपद सेवा धार रे
सम०
१
२
॥ २५५॥
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