Book Title: Pratishthakalpa Anjanshalakavidhi
Author(s): Sakalchandra  Gani, Somchandravijay
Publisher: Nemchand Melapchand Zaveri Jain Vadi Upashray Surat

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Page 309
________________ अञ्जन प्र. कल्प ॥२५९।। सापECEREMCHA (ढाल ९॥) ( मारुजी निंद नयणां बिचे घुल रही, घुल रही नयणां बिच । नणदीरा वीरा, मारुजी, निंद नयणां विच घुल रही-ए देशी) माने प्रथम सुपनमा विनवे, एरावण गज आय हो वामाद माता, माजी ! मुझ स्वामी तुझ पुतना, आवी नमस्ये पाये हो०, माजी ! सुपन भाव सवि सदहे, आवीजे जे कंत हो । जननी ! बहेस्ये तुझ सुतने, मुझ परे पंच महावत भार हो, माने बीजे सुपन धोरी कहे, नयणानंदनकार हो० माजी. २ तेहवें त्रीजे कहे केसरी, तुझ नंदन नरसीह हो०, माजी ! भेदक मान गजेन्द्रनो, मुझ परे थास्यें अबीह हो० मा० ३ माजी ! मझ दर्शन दीठे थके, भोगवशे तुझ वत्स हो, माजी ! चोथे ९ लखमी कहं, तीर्थकरनी लछ हो। मा० ४ पांचमे दाम युगल कहे, मुझ परे तुं मन जाण हो, माजी ! त्रिभुवनजन शिर धारस्ये, तुझ नंदननी आण हो० मा० ५ RSCHE RESCARRERESSAGE EXTENS ॥२५९॥ Jain Education Intemaridhia! For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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