Book Title: Pratishthakalpa Anjanshalakavidhi
Author(s): Sakalchandra  Gani, Somchandravijay
Publisher: Nemchand Melapchand Zaveri Jain Vadi Upashray Surat

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Page 321
________________ अञ्जन प्र. कल्प ॥२७१ ॥ Jain Education International जीरे सुरनिरमित कंसारने, आरोगी करे प्रीत अभंग सुं०, जीरे परणी निज घर आवीआ, माय तायने अधिक उछरंग सुं० ११ जीरे विधिकारक करणी करे, सुणज्यो हवे तेह स्वरूप, सुंदर नव वने (आंकणी-) जीरे च्यार नार पोहोॠण करे, वलि आरति-मंगलदीप मुं० १२ जीरे श्रावक पंचमंगल भणी, करे विवनो चर्चित हाथ सुं०, जीरे नव ग्रहने बलि देने, घरी नेवेद होय सनाथ मुं० १३ जीरे गेवासूत्रथी बांधी, तोरणयुत चोरी उदार सुं०, जीरे सिंहासन मंडल तले, थापी जिनपडिमा सार मुं० १४ जीरे हेमकलस चउ दीवडा, ठवे सोहब सुखडीथाल सुं०, जीरे लेती प्रभुनां उवारणां - जलधान ठवे ते बाल सुं० १५ जीरे चार गाइआ उपरे, थापे जुवाराना सराव सुंभ, जीरे चैत्यवंदन गुरु तिहां करी, रक्तांबरे विंव ढंकाव सुं० १६ जीरे अधिवासन मंत्रे करी, सूरिमंत्रे वास सुं०, जीरे वित्र करे पूगी ठवे, दीये नाखे धवलमंगल उल्लास सुं० ९७ For Private & Personal Use Only ॥२७१ ॥ w.jainelibrary.org

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