Book Title: Pratishthakalpa Anjanshalakavidhi
Author(s): Sakalchandra  Gani, Somchandravijay
Publisher: Nemchand Melapchand Zaveri Jain Vadi Upashray Surat

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Page 323
________________ अञ्जन प्र. कल्प ॥२७३॥ ૬૯ Jain Education Im १० ११ १२ १३ १४ सामा उच्च तव मनःपर्यव पावे रे, सुरपति वाम खंभे घरे, देवांवर ते प्रस्तावे रे चरण - महोच्छव सुर करी नंदीसर मली आवे रे, अट्ठाइ महोछव करी, सुर निज निज थानिक जावे रे अनुमत सयण मावीत्री, मागे तब रोवंतां कहे ! मुखड़े कदा जोस्यां हरख भरंतां रे पावन करजो आंगणं, पारणेने मी से पुत्तो रे, अमने कदि न विसारज्यो, दर्शन देज्यो सुमीत्तो रे इम जोतां (पाछा) बल्या, प्रभु पण विचरे निरासी रे, घाती कर्म चउ जीवस्यें, वीतसे वासर चोरासी रे गुरु हवे चैत्यवंदन करी, वंदावे वली देवरे, रयणीसमे तिहां गुरु कहे, अधिवासन स्वयमेव रे खुसाल साये नवमे दिने, दीक्षा कल्याणक कीधुं रे, रंगे करीने उच्छाहथी, मनवंछित फल लीधुं रे (ढाल १५ ॥ ) (देशी हमारानी II) १ हवे दशमे दिन कृत्य करे, आवक ने गुरुराय सुग्या (ज्ञानी केवलज्ञान ने मोक्षना, कल्याणक सुखदाय सु० महापूजा इम कीजीये चरणपर्याये पासजी, व निज गुगठाण सु०, कमठकृत उपसर्गने, जीत्यो उपशम आण सु० म० २ त्यासी दिवस इणि परे, विचरी आरज देस सु०, व्रत वनमां आवे विभु हवे सुणो विधि उद्देस सु० म० ३ कंकण मोढल वांधीये, स्नात्रकारकने हाथ सु०, ग्रह-दिगपालने पूजीये, बली दीजे विधि साथ सु० म० ४ For Private & Personal Use Only १५ १६ ॥ २७३॥ jainelibrary.org

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