Book Title: Pratishthakalpa Anjanshalakavidhi
Author(s): Sakalchandra  Gani, Somchandravijay
Publisher: Nemchand Melapchand Zaveri Jain Vadi Upashray Surat

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Page 307
________________ अञ्जन प्र. कल्प ॥२५७॥ ૫ Jain Education International देव वांदीने थानिकपद तणी जी, नवकारवालि गुणीयें वीस रे, विविध पकवान ने नैवेद ढोकीये जी, घारी अणहारी पद जगदीस रे पांचमा दिननी किरिया ए कहीजी, सकलगुरु ने वयण-प्रसंग रे, हरषे खुशालचंद द्रव्यने जी, खरचे दिन दिन वधते रंग रे ( ढाल ८ || ) ( मइ हो रे समरा रे जांवर जीया हुं वारी । दोसीडांरी गलीये थे मत जाओ, साहिब छोगो विराजें पंचरंग पागमां- मारुजी- ए देशी ॥ ) छडे दिवसे रेकिरिया मांडीये हुं बारी, क्षेत्रपालादिक जे अभिराम, गुण सनेहा सांभलीये सारी वातने हुं० कष्टना हुं०, गृहपतिने थापो इंद्रपदे इहां हु०, तिलक जनोइ मुकुट धरावीने हु०, हवे ते इंद्राणी वेदी उपरे हुं०, पाछलथी गाये गोरी छंदसुं हुं०, प्रहरणधारक वारक ते भणी करीये धुर प्रणाम गुरु मंत्री वास करे हितकार इंद्राणी करीये तस घरनार विरचे बहुमानें स्वस्तिक पंच मानुं ए मलीयो अछर-संच For Private & Personal Use Only सम० १० सम० ११ सुगुण १ सु० सु० २ सु० सु० ३ ॥२५७॥ www.jainelibrary.org.

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