Book Title: Pratishthakalpa Anjanshalakavidhi
Author(s): Sakalchandra  Gani, Somchandravijay
Publisher: Nemchand Melapchand Zaveri Jain Vadi Upashray Surat

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Page 313
________________ अञ्जन प्र. कल्प ॥२६३॥ 4563 आठ उदवंथी आवीने स्वामीना जन्म-आगारे रे, जिनगुण हर्ष सु धरती रे उलट अंग न मावे रे, दक्षिण रुचकनी नमी आठ कलस ग्रही हाथे रे, आठ ए पश्चिम रुचकनी वायुर्विजण लेइ आवे रे, चंचल चामर विंजती उत्तर रुचकनी अमरी रे, चार विदिसथी आवी ए दीपक करे धरी चार रे, मध्य रुचकनी चउ मली नाल वधरे ते देवी रे. उपर पीठ रयणमय बांधीने अति अलिराम रे, ते घरमां जिन ने जिनमाताने लेइ नवरावे रे, चंदन होम करीने रक्षा पोटली बांधे रे, लिग श्रावक रत्नग्रंथीने रक्षापोटली बेहोरे, यव ने अरीठानी माला विबने कंठे ठगीजे रे, ते जल लेइ बिंधने जलदरसनने करावो रे, इंद्राणी अग्रमहिपीनो ओछय विधिसुं वंदिजे रे, मनमोहन माहाराजने नीरखवा दरपण धारे रे, इणीपरे सुरकन्या मली (म) ली मंडलमा दर्पण लावी रे ५ परिकरयुत माताने प्रणमी दोये सनाथ रे, जगदीश्वर जननीने प्रणमी जिनगुण गावीरे (वे) रे ६ आठ नमे जिन-मातने जिनगुण हियडले समरी रे, जगदंबे प्रणमी करी धन्य गणे अवतार रे ७ खातोदरमा थापीने वनरयण संपुरेवी रे, पश्चिम दिसि वरजी करे, केलतणा त्रण धाम रे ८ पेहरावी अलंकारने चरची गीत गावे रे, नृत्य करी जिन-जननीने घर ठवी निजपद वाधे रे ९ मंत्री बांधे विबने जमणले करि धरी ने हो रे, जलजा--जलमां फूल-चंदन-वास भेलीजे रे १० धूप दीप करीने पछे नाटिक-गीतने भणावो रे, केसरथी नव विवने भाले तिलक करीजे रे ११ BAHISHASHARAPESA-ASS - - ॥२६३॥ Jain Education D onal For Private & Personal Use Only Uw.jainelibrary.org

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