Book Title: Pratishthakalpa Anjanshalakavidhi
Author(s): Sakalchandra  Gani, Somchandravijay
Publisher: Nemchand Melapchand Zaveri Jain Vadi Upashray Surat

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Page 318
________________ प्र. कल्प ॥२६८॥ भुंजावि सयण सुरंग पेहेरामणी साथे रे, निज सेना सनी चतुरंग वणारसीनाथे रे, धाणी चणा पकवान बहु फल मेवा रे, हेम-खडिया लेखण मान छात्रने देवा रे ४ वररूपे पास कुमार चडया वरघोडे रे, गाये अपछर सरखी नार मनने कोडे रे, वाजते वाजीत्र जनमालाये रे, आव्या अयि मोह विचित्र लेखकसालाये रे ५ वित्र मनोगत भर्म इंद्रवयणथी रे, कही प्रभुये पमाडयो धर्म अवधिनयणथी रे, अयाचि कों नस पात्र (1) लहि द्विज भावे रे, छात्रोनां पोपी गात्र छुटे अपावी (वे) रे ६ देखी कहे बाल गोपाल मावित्र हरखे रे, अहो बालपणे ए अबाल मनोगत परखे रे, इम लेखसालाये ज्ञान प्रगट करी आव्या रे, पछे अनुकरमे भगवान जोवन पाया रे ७ हवे गृहपति सर्वाग विंधने अरचे रे, वली धृपफूल उछरंग वासे अरचे रे, सुरभी, पद्म ने अंजलि मुद्रा भावे रे, जिन पडिमाने गुरुनाथ करीने देखावे रे ८ अधिवासन मंत्रे गुरु करे अवतारो रे, मीढल कंकण सहु विवने हाथे धारो रे, मुत्तात्ती चक्रमुद्रा करी हरसे रे, विधिकारक पांचे अंग प्रभुना फरसे रे ९ अंगें धूप उखेवी जिन आह्वान रे, जिन मुद्रायें त्रण वार करे सविधान रे, आसनमुद्रा सार पछे निरखावि रे, गुरु पूजी वास बरास प्रभु दिल लावी रे १० ॥२६८॥ Jain Educatio n al For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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