Book Title: Pratishthakalpa Anjanshalakavidhi
Author(s): Sakalchandra  Gani, Somchandravijay
Publisher: Nemchand Melapchand Zaveri Jain Vadi Upashray Surat

View full book text
Previous | Next

Page 308
________________ अञ्जन प्र. कल्प ॥२५८॥ ARRARO नास (न्यास) करीने गुरुपूजन करो हुँ०, तदनंतर नूतन विने हुँ०, पयमिश्रित वासे नूतन विवर्नु हुँ०, दूधे भरी कलसमां जिनने थापिये हुं०, हवे भवि सुणज्यो च्यवनतणी विधी हुँ०, आनंद नामे नृप संयम लेइ हु०, तिहांथी तित्थंकरगोत्र उपारजी हुं०, बीस सागरनुं जीवीत भोगवी हुं०, निरुपम नयरी वणारसीनो धणी हुं०, राणी वामादे कुखे अवतर्या हुँ०, निद्रावसे पोढयां सेजे मातजी हुं०, निज निज भाव कहे सहु रंग थी हुँ, पूजी आचारज पूजो पीठ मु. गुरु मंत्रे खेपे वास विसिट सु. ४ सर्वांगे विलेपन करीये सार सु० इहा सूचव्यो च्यवनतणो प्रतिकार (प्रकार) मु. ५ त्रीजे भव पासप्रभुनो जीव सु० आराधि थानकपदने अतीव सु०६ उपजे जइ प्राणत स्वर्ग मझार मु० । देवना भवनो करी परिहार मु० ७ अवनीपति अश्वसेन नृप तात सु० । चैतर वदि चोथे गर्भावास सु. ८ लहे सुमिणां चउदस मंगलकार सु० वर्णवीये कांई तस अधीकार सु० ९ ||२५८॥ D For Private & Personal Use Only Jain Education B ainelibrary.org onal

Loading...

Page Navigation
1 ... 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340