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प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...39 पाँच प्रकार के प्रमाद हैं तब तक मुख्य उपकारी क्रिया है, ज्ञान उसका एक साधन है। क्रियारहित अकेला ज्ञान आत्मा को अधिक प्रमादी और पाप परायण बनाता है।
जीवन में जहाँ तक प्रमाद भाव है क्रिया धर्म की आराधना निरन्तर करनी चाहिए तथा क्रिया की सफलता हेतु उस प्रकार का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। लोकव्यवहार में प्रमाद का तात्पर्य आलस्य, सुस्ती, खाली बैठना, काम-काज नहीं करना आदि समझा जाता है किन्तु जिन शासन में प्रतिक्रमण के सन्दर्भ में प्रमाद पाँच प्रकार का माना गया है जो आत्मा के दोष रूप हैं। यह जीव अनादिकाल से पंचविध प्रमाद दोषों से सम्पृक्त है। प्रमाद का सेवन उस चेतना के लिए सहज बन गया है। इसके अधीन हुआ जीव अनेकविध पाप प्रवृत्तियाँ करता है। उन पापों से बचने एवं पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए प्रतिक्रमण करना ही चाहिए। प्रमाद के पाँच प्रकार निम्न हैं
1. मद्य- नशीली वस्तुओं का सेवन करना 2. विषय- पाँच इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होना 3. कषाय- क्रोध आदि की प्रवृत्ति करना 4. निद्रासोते, बैठते, खड़े होते, चलते हुए आदि में नींद लेना 5. विकथा- राजा, देश, भोजन एवं स्त्री आदि की कथा करना।
उक्त पाँच प्रकार के प्रमाद आत्म गुणों का घात करने वाले होने से इन्हें शत्रु या मृत्यु की उपमा दी गई है। छठवें गुणस्थान तक प्रमाद होता है इसलिए जहाँ तक प्रमाद हो उस सीमा तक प्रतिक्रमण करना ही होता है। इस प्रकार प्रमाद दोष को दूर करने का मुख्य साधन प्रतिक्रमण की क्रिया है। प्रतिक्रमण न करें तो प्रमाद दोष अनंत गुणा विपरीत फल देने वाला होता है।
प्रमाद दोष के कारण ही जीव धर्म और गुणों से भ्रष्ट होता है। एक बार भ्रष्ट होने के पश्चात फिर से धर्म की भूमिका प्राप्त करने के लिए प्रतिक्रमण की क्रिया अमोघ उपाय है। प्रतिक्रमण की चार भूमिकाएँ
प्रतिक्रमण की क्रिया में ‘पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि'- शब्द बोले जाते हैं जो प्रतिक्रमण साधना की अनुक्रम से चार भूमिकाएँ हैं
कोई प्रवृत्ति गलत, पापमय या सावध हो तो उसमें आगे बढ़ते हुए रूक