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प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका-समाधान ... 215
शंका- प्रातः कालीन प्रतिक्रमण में देववंदन बाद में और सन्ध्याकालीन प्रतिक्रमण में प्रारम्भ में किया जाता है ऐसा क्यों ?
समाधान- देववंदन यह प्रतिक्रमण की एक अतिरिक्त क्रिया है। षडावश्यक में इसका समावेश नहीं है। यह त्रिकाल चैत्यवन्दन की अपेक्षा से दोनों बार प्रतिक्रमण में किया जाता है। परम्परागत रूप से देववंदन सूर्य देवता की साक्षी में करने का नियम है। तदनुसार प्रभात में प्रतिक्रमण शुरू करने के बाद सूर्योदय होता है इसलिए प्रतिक्रमण के अन्त में करते हैं तथा सन्ध्या को प्रतिक्रमण पूर्ण होते-होते सूर्यास्त हो जाता है अतः प्रारम्भ में करते हैं।
शंका- प्रतिक्रमण में शांति पाठ बोलना उचित है ?
समाधान- प्रतिक्रमण मूलरूप में तो छह आवश्यक की आराधना है। शेष विधि परवर्ती काल में सम्मिलित हुई है, जिसे पूर्वाचार्यों ने उस समय की आवश्यकता के अनुसार ही सामाचारी में संयुक्त किया है। शांति पाठ मंगलकारी एवं विघ्न निवारक है। इसके द्वारा समस्त संघ के कल्याण की भावना की जाती है। अत: इसे बोलने में किसी प्रकार की अविधि होती हो ऐसा नहीं लगता। समस्त प्राणियों के मंगल रूप यह पाठ जैन धर्म की विश्व कल्याण की भावना को भी प्रदर्शित करता है। अतः प्रतिक्रमण की समाप्ति में शांति पाठ बोलना अनुचित प्रतीत नहीं होता ।
शंका - व्रत और प्रत्याख्यान में क्या अन्तर है?
समाधान - विधिरूप प्रतिज्ञा व्रत कहलाती है और निषेध रूप प्रतिज्ञा प्रत्याख्यान कहलाता है । व्रत मात्र चारित्र में ही होता है जबकि प्रत्याख्यान चारित्र और तप उभय रूप होता है । व्रत विकल्प पूर्वक ग्रहण किया जाता है जबकि प्रत्याख्यान विकल्प के बिना भी होता है।
शंका- द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव प्रतिक्रमण का क्या स्वरूप है ?
समाधान- प्रतिक्रमण के सूत्र पाठ का उच्चारण करना द्रव्य प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण योग्य स्थान, क्षेत्र प्रतिक्रमण है। यहाँ छठें व्रत एवं दसवें व्रत के द्वारा भी क्षेत्र प्रतिक्रमण होता है। प्रतिक्रमण में जितना समय बीतता है, वह काल प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण क्रिया में तच्चित्त- तन्मय हो जाना, भाव प्रतिक्रमण है।
शंका- ग्यारहवाँ पौषधव्रत नौवें सामायिक व्रत से विशिष्ट है फिर भी ग्यारहवें में निद्रा, निहार आदि की छूट है और नौवें में नहीं है। यह विरोध क्यों?