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अध्याय-7
उपसंहार
करते
जिन शासन में प्रतिक्रमण आत्म विशुद्धि का अद्भुत योग है । प्रतिक्रमण हुए अगणित आत्माओं ने केवलज्ञान प्राप्त किया है। विविध कार्य परम्पराओं कोई भक्ति योग को, तो कोई कर्मयोग को, कोई ज्ञान योग को, तो कोई ध्यानयोग को, तो कोई क्रियायोग को प्रमुखता देते हैं और दूसरों को उस योग में प्रवृत्त करने का प्रयास करते हैं। परन्तु महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आत्मशुद्धि जैसा महान कोई योग नहीं है तथा भूत और भावी पापों का प्रतिक्रमण किये बिना आत्मशुद्धि संभव नहीं है इसलिए प्रतिक्रमण को श्रेष्ठ योग माना गया है। मलिन वस्त्र पर अंकित की गई श्रेष्ठ कारीगरी भी शोभा नहीं देती है, डिजाईन से पहले वस्त्र कोमल रहित करना जरूरी है, इसी भाँति आत्मा को भी प्रतिक्रमण से स्वच्छ करना चाहिए। इसीलिए जैन धर्म में प्रातः और सन्ध्या दोनों समय प्रतिक्रमण करने का तथा वर्ष भर में पाँच प्रकार के प्रतिक्रमण करने का उपदेश है ।
प्रतिक्रमण का पहला चरण आत्म निरीक्षण है। जो आत्म-निरीक्षण करना नहीं जानता, वह आध्यात्मिक तो क्या, शायद धार्मिक भी नहीं हो सकता । धार्मिक होने का सबसे बड़ा सूत्र है अपने आपको देखना। हम प्रायः दूसरों को ही देखने, जानने एवं समझने का प्रयास करते हैं। अनादिकालीन कुसंस्कारों के प्रभाव से हमारी रुचि पर पदार्थों में अधिक है। व्यावहारिक स्तर पर जीते हुए स्वयं की बुराईयों का आरोपण भी दूसरों पर ही करते हैं । जहाँ तक हो अपनी भूल का दोषी अन्यों को ठहराते हैं जैसे किसी ने झगड़ा किया, गाली दी। उससे पूछा जाए कि ऐसा क्यों किया ? वह यही कहेगा कि मैं क्या करूँ? उसने मुझे गाली दी तो मैंने भी दी । वह अपनी गलती कभी भी स्वीकार नहीं करेगा। सदा यही कहेगा कि पहले उसने दी इसलिए मैंने भी दी । व्यक्ति हर बात में, उसमें भी गलत बात में तो दूसरों को ही दोषी मानता - समझता है। यह सब आत्म निरीक्षण के अभाव में होता है। आत्म निरीक्षण की भावना जग जाए तो फिर स्वयं की भूलों को देखने में देर नहीं लगेगी।