Book Title: Pratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 297
________________ उपसंहार ...235 जो स्वयं की भूलों को देखता है वही आध्यात्मिक है। जहाँ दूसरा आता है, अध्यात्मवाद समाप्त हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा कहे कि दूसरे ने मेरे साथ ऐसा किया इसलिए हम भी वैसा कर रहे हैं तो मानना चाहिए कि वह धार्मिक बना ही नहीं है। वह तो केवल धर्म क्रियाओं का दिखावा मात्र कर रहा है। वस्तुत: उसकी अन्तश्चेतना में धर्मबीज का वपन नहीं हुआ है। प्रतिक्रमण अपने आपको देखने का संदेश देता है। एक बार आत्म अवलोकन करना प्रारम्भ कर दें तो जीवन में एक अपूर्व परिवर्तन की अनुभूति होने के साथ-साथ जीवनगत बहुत सारी समस्याएँ सुलझनी शुरू हो जायेगी । इस प्रकार आधुनिक जीवन की सभी समस्याओं का समाधान प्रतिक्रमण आवश्यक में समाहित है। हम देखते हैं कि लौकिक जगत में वही व्यापारी कुशल कहलाता है, जो प्रतिदिन सायंकाल देखता है कि आज के दिन मैंने कितना लाभ प्राप्त किया है? जिस व्यापारी को अपनी आमदनी का ज्ञान नहीं है, वह सफल व्यापारी नहीं हो सकता। उसी तरह जो साधक प्रतिदिन का अपना लेखा-जोखा करता है, अपने कर्त्तव्यों का स्मरण करता है तथा सत्-असत् प्रवृत्ति का निरीक्षण करता है वही साधना के क्षेत्र में सफल हो सकता है। भगवान महावीर ने आत्म निरीक्षण की सुन्दर विधि प्रतिपादित की है। प्रत्येक व्यक्ति यह अनुशीलन करें- किं मे कडं - आज मैंने क्या किया है? किं च मे किच्चसेसं- मेरे लिए क्या कार्य करना शेष है? किं सक्किणिज्जं न समायरामि – वह कौनसा कार्य है जिसे मैं कर सकता हूँ, पर प्रमादवश नहीं कर रहा हूँ? किं मे परो पासइ किं व अप्पा- क्या मेरे प्रमाद को कोई दूसरा देखता है अथवा मैं अपनी भूल को स्वयं देख लेता हूँ ? किंवा हं खलियं न विवज्जयामि – वह कौन सी स्खलना है, जिसे मैं छोड़ नहीं रहा हूँ? यह आत्म निरीक्षण का एक प्रारूप है। जो व्यक्ति इसके अनुसार आत्म निरीक्षण करता है वह सचमुच प्रतिक्रमण की दहलीज पर पाँव रख देता है। इस वर्णन से समझना होगा कि प्रतिक्रमण आवश्यक में प्रवेश करने से पूर्व या इस आवश्यक क्रिया को सार्थकता प्रदान करने के लिए आत्मनिरीक्षण करना या उसका अभ्यास करना परमावश्यक है। प्रतिक्रमण करने का मूल लक्ष्य है- दुष्कृत को मिथ्या करना, पाप का

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