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प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका समाधान ... 191
समाधान- परम्परागत सामाचारी के अनुसार क्षमायाचना और तप वहन पाक्षिक प्रतिक्रमण के पश्चात दूज तक, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण के पश्चात पंचमी तक और संवत्सरी प्रतिक्रमण के पश्चात दशमी तक कर सकते हैं। परिस्थिति विशेष में पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण के पहले भी शुद्धि भूत तप को पूर्ण कर सकते हैं।
शंका- दैवसिक आदि पाँचों प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग में लोगस्स सूत्र का ध्यान भिन्न-भिन्न संख्या में क्यों ?
समाधान- दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में लगभग चार प्रहर (12 घण्टे) जितने अल्प समय में लगे दोषों की ही शुद्धि करनी होती है। उस शुद्धि के लिए चार लोगस्स का ध्यान पर्याप्त होता है, परन्तु पाक्षिक चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में क्रमश: पंद्रह दिन चार महीने और बारह महीने के अतिचारों का चिंतन एवं विशोधन किया जाता है। जैसे-जैसे समयावधि बढ़ती है वैसे-वैसे उसकी शुद्धि हेतु लगने वाली कालावधि भी बढ़ती जाती है अतः पाक्षिक प्रतिक्रमण में चार लोगस्स से तिगुने बारह लोगस्स, चातुर्मासिक में उसके पाँच गुने बीस लोगस्स एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में दैवसिक प्रतिक्रमण से दस गुने अर्थात चालीस लोगस्स सूत्र का ध्यान आवश्यक होता है। कायोत्सर्ग की यह संख्या गीतार्थ आचार्यों द्वारा निर्धारित की गई है।
शंका- यदि प्रतिक्रमण का मुख्य फल मोक्ष की प्राप्ति है तो निरन्तर प्रतिक्रमण ही करते रहना चाहिए, फिर अन्य क्रियानुष्ठान क्यों करें ?
कोई भी क्रिया उचित काल में करने पर ही फलदायी होती है। जैसे पथ्य सेवन आदि नियमों का पालन करते हुए ली गई औषध रोग का समुचित उपचार करती है परंतु वही औषध विधियुत न लेने पर अन्य विकारों को उत्पन्न कर देती है अत: निर्धारित काल में किया गया प्रतिक्रमण ही दोषों का निवारण करता है। समाधान- प्रत्येक क्रिया यथोचित काल में की गई फलदायी होती है। जैसे कि यथोक्त काल, पथ्य सेवन आदि नियमों का पालन करते हुए ली गई औषध रोग का समुचित उपचार करती है वैसे ही यथोक्त काल में किया गया प्रतिक्रमण ही दोषों का निवारण करता है। अतः प्रतिक्रमण के अतिरिक्त अन्य क्रियाओं की भी जरूरत है।