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194... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
किसी तीर्थयात्रा, उपधान आदि प्रसंग पर इकट्ठे हुए भिन्न-भिन्न मातृभाषा के श्रावकों की प्रतिक्रमण क्रिया में समरूपता नहीं रहेगी और फिर सभी को अलगअलग सूत्र वगैरह बोलते देखकर, जिनको मात्र प्रश्न ही उठाना हो, वे तो नया प्रश्न यह भी उठाएंगे कि अपने जैन शासन में कोई व्यवस्था, शिष्टता अथवा एक सूत्रता ही नहीं है, कोई ऐसे बोलता है तो कोई ऐसे ? जिन्हें प्रश्न ही उठाने हैं वे तो रोज नए-नए प्रश्न उठा सकते हैं इसलिए गणधर कृत सूत्रों में ऐसी कोई आपत्ति भी नहीं है और उन सूत्रों से शासन चिरकाल तक व्यवस्थित भी चलता है।
यहाँ पर समझने जैसी मुख्य बात यह है कि संस्कृत भाषा देवताओं और पंडितों की भाषा तथा श्री गणधर भगवन्त संस्कृत रचना करने में सम्पूर्ण समर्थ हैं फिर भी उन्होंने प्रतिक्रमण सूत्रों की रचना प्राकृत मागधी भाषा में की। इसका मुख्य कारण यही था कि सामान्य मनुष्य भी उसे समझ सकें। क्योंकि उस समय की जनभाषा आर्धमागधी प्राकृत ही थी ।
काल के अनुसार जैनों के स्थान और भाषा बदलती गई और अगर इस आधार पर नई-नई भाषाओं में सूत्र बनाए जाते तो ऊपर बताई आपत्तियाँ तो खड़ी होती ही। साथ-साथ सैकड़ों हजारों की संख्या में सूत्र मिलते जिससे एक भी सूत्र पर सच्ची श्रद्धा न रहती और इसके परिणाम रूप प्रतिक्रमण जैसा महान अनुष्ठान अपना अस्तित्व ही खो देता ।
इसलिए गणधरकृत सूत्रों की भाषा बदलने के विषय में विचार करना व्यर्थ है, प्रत्युत सूत्रों के अर्थ सीखने में ही तत्त्व है । जिस तरह व्यापार आदि के लाभ के लिए मातृ भाषा मारवाड़ी, गुजराती छोड़कर अंग्रेजी के शब्द आदि सीख लेते हैं उसी प्रकार सूत्रों के विषय में भी समझना चाहिए।
शंका- प्रतिक्रमण में आनन्द नहीं आता और उसके अभाव में की गई क्रिया का क्या फल ?
समाधान - वस्तु के ऐसी होने पर उसमें रस आता है और ऐसी होने पर नहीं, इस प्रकार आनन्द वस्तु पर आधारित नहीं होता बल्कि व्यक्ति की आसक्ति एवं मानसिक जुड़ाव के अनुसार ही रस की अनुभूति होती है। जैसे भोजन करते समय पहले मिठाई पर रस होता है, भात पर नहीं लेकिन मिठाई खा लेने के बाद मन बदल जाता है, अब रस मिठाई पर रहकर भात पर आ जाता है और यदि कोई ऐसा मानता हो कि चावल क्या खाना ? शक्ति तो माल (मिठाई ) खाने