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प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका समाधान ... 193
वर्तमान सन्दर्भ में उठते प्रासंगिक प्रश्न
शंका- प्रतिक्रमण सूत्रों के अर्थ समझ में नहीं आते और लंबे समय तक बैठने में आलस भी आता है इसलिए यदि प्रतिक्रमण की अपेक्षा प्रभु भक्ति की जाए तो क्या दोष?
समाधान- जिन्हें पाँच इन्द्रियों के प्रति अत्यधिक आकर्षण है, जो शरीर के प्रति सुखशील है, वे लोग मनुष्य जीवन के कर्त्तव्यों का भान न होने से एक को छोड़ दूसरे कर्त्तव्य का सहारा लेते हैं। दूसरे कर्तव्य ( प्रभु भक्ति आदि) के नाम पर प्रथम कर्त्तव्य को पूर्ण रूप से छोड़ ही देते हैं। थोड़े दिनों में प्रभु भक्ति आदि भी नीरस लगती है क्योंकि उन्हें असल में आत्म धर्म के प्रति रूचि नहीं है। आत्म रूचिवन्त तो प्रतिक्रमण जैसी कठिन क्रिया को प्रथम स्थान देगा तथा प्रतिक्रमण करके पाप से भार मुक्त होने का भी अहसास करेगा। अधिक समय वाली क्रियाएँ करके वह अपने उतने समय को सुकृत मानेगा। वस्तुतः प्रतिक्रमण, प्रभु भक्ति आदि क्रियाओं का अपना-अपना महत्त्व है।
शंका- सूत्रों के अर्थ जाने बिना तोता रटन की तरह प्रतिक्रमण करने से क्या फायदा?
समाधान- डाक्टर द्वारा दी गई दवाई के घटक तत्त्व न भी पता हो तो भी वह रोग निदान में सहायक बनती है। प्रभावी मन्त्रों का अर्थज्ञान नहीं होने पर भी सफलता देता है। क्योंकि वहाँ श्रद्धा और विश्वास है। वैसे ही भावपूर्वक किया गया प्रतिक्रमण अर्थ के अभाव में भी फलदायी होता है। प्रतिक्रमण सूत्रों के अर्थ की पुस्तकें सर्वत्र उपलब्ध है अतः अर्थ पिपासु गुरुगमपूर्वक अथवा उन पुस्तकों से अर्थज्ञान कर सकते हैं और करना भी चाहिए। परन्तु उसके अभाव में प्रतिक्रमण को लाभहीन मानना सर्वथा अनुचित है।
शंका- प्रतिक्रमण के सूत्र प्राकृत मागधी भाषा में न होकर मातृ भाषा में हो तो उसे याद करने और समझने में आसानी होगी तथा अन्तर्रुचि भी बढ़ेगी ? समाधान- आपका कथन सत्य है लेकिन इसके पीछे अनेक प्रश्न खड़े होते हैं जैसे कालक्रम में मातृभाषा में फेरफार होने पर सूत्रों में फेरफार करना पड़ेगा, थोड़े-थोड़े फेरफार के कारण एक ही भाषा में अनेक रचनाएँ अस्तित्व में आ जायेगी और जिसे जो पसंद हो वह उसे बोलेगा - तो सभी सूत्रों में भिन्नता होने के कारण एक सूत्रता का अभाव हो जायेगा। इस स्थिति में ये सूत्र गणधरकृत है, ऐसा बहुमान नहीं रहेगा ।