Book Title: Pratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 261
________________ प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका-समाधान ...199 प्रतिक्रमण मात्र सूत्रों का उच्चारण नहीं अपितु एक ऐसी मनोवैज्ञानिक विधि है कि एक चरण दूसरे चरण की भूमि का निर्माण करने में सहायक बनता है। बिना भावों के मात्र सूत्रोच्चारण कभी भी पाप निवृत्ति में हेतुभूत नहीं बन सकता। विधिपूर्वक प्रतिक्रमण करते हए जिन पाप-क्रियाओं का पश्चात्ताप किया जा रहा है उस समय में कम से कम उनसे निवृत्ति हो जाती है तथा समभाव की स्थिति होने पर ही ममत्त्व भाव कम होकर निन्दा-गर्दा आदि भाव उत्पन्न हो सकते हैं। जैसे संगीत के सात स्वर यदि विधिपूर्वक उनके नियम अनुसार न बोले जाएं तो वे एक सुंदर राग के स्थान पर कर्कश, बेसुरी चीख के समान लगते हैं, वैसे ही विधि एवं भाव रहित सूत्रोच्चारण मात्र शब्दों का जाल लगता है। दूसरा हेतु यह है कि आरम्भ-समारम्भ रूप पाप व्यापार का त्याग करने एवं जीव हिंसा आदि से विरक्त होने पर ही दुष्कृत्यों का सचोट संताप हो सकता है इत्यादि कारणों से क्रियायुक्त प्रतिक्रमण ही सार्थक है। शंका- कई लोग प्रश्न करते हैं कि आज की भाग-दौड़ वाली जिन्दगी में यदि प्रतिक्रमण, पूजा-पाठ आदि धर्मकृत्यों में ही समय को बिताया जाए तो व्यक्ति अपने कर्तव्यों और दैनिक कार्यों के लिए कब समय निकालेगा और कैसे सुख-सुविधापूर्ण जिन्दगी जी पाएगा? समाधान- सर्वप्रथम संसारी जीव का लक्ष्य मात्र भौतिक सुखों की प्राप्ति ही नहीं अपितु आत्मिक आनन्द की अनुभूति करना भी है जो एक मात्र धर्म क्रिया या सत्कार्यों से ही हो सकती है। दूसरी बात, इन क्रियाओं को करने से अंतराय कर्म का नाश होता है जिससे स्वत: ही अल्प श्रम और थोड़े व्यापार से भी अधिक लाभ की प्राप्ति हो जाती है। जिस प्रकार गुरु वैयावच्च, विनय आदि से ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय होकर अल्प प्रयास से अधिक ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वैसे ही परमात्म पूजन, प्रतिक्रमण, गुरु सेवा, तपस्या आदि शुभ क्रियाओं द्वारा अंतराय आदि विविध कर्मों का क्षय होने से अल्प व्यापार के द्वारा भी अधिक ऋद्धि-समृद्धि हासिल हो जाती है। प्राचीन युग में अधिकांश लोग सुकृत में अधिक समय देकर भी समृद्धिशाली होते थे और अल्प व्यवसाय से बहत कुछ अर्जित कर लेते थे। यथार्थत: वे संतोष प्रिय होते थे। वहीं आज व्यक्ति बाह्य क्रियाकलापों से जितना अधिक व्यस्त होता जा रहा है, अशान्ति और असन्तोष उतना ही उस पर हावी हो रहे हैं।

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