Book Title: Pratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

Previous | Next

Page 271
________________ प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका-समाधान ...209 निवारण का कायोत्सर्ग किया जाता है जिसका अभिप्राय स्वाध्याय आदि प्रारम्भ करने से है अतः इस परम्परा का कोई प्रामाणिक हेतु समझ में नहीं आया है। परन्तु गुरु परम्परा से यह आचरणा देखी जाती है। साधु सामाचारी के अनुसार पाक्षिक प्रतिक्रमण के बाद स्वाध्याय किया जा सकता है, क्योंकि दिन भर चारित्र तिथि होने से चारित्र आराधना को प्रमुखता दी गई और रात्रि में साध्वाचार के सम्यक निर्वहन हेतु स्वाध्याय को । शंका- प्रतिक्रमण प्रारम्भ का शुद्ध समय बताते हुए कहा गया है कि जब आधा सूर्य दिखाई दें और आधा अस्त हो जाये उस समय वंदित्तु सूत्र बोला जाना चाहिए, ऐसा क्यों ? समाधान- प्राचीन काल में जब घड़ी आदि साधनों का आविष्कार नहीं हुआ था तब सूर्य की छाया के आधार पर ही समय का निर्णय किया जाता था अतः समय ज्ञान की अपेक्षा से ऐसा कहा गया है। दूसरा हेतु यह हो सकता है कि प्रतिक्रमण की मुख्य क्रिया सूर्य की साक्षी या उपस्थिति में हो जानी चाहिए क्योंकि अंधेरे में उपयोग पूर्वक उठ-बैठकर क्रिया नहीं हो सकती और जीव हिंसा की सम्भावना भी बढ़ जाती है। वंदित्तु सूत्र लगभग सभी परम्पराओं में बोला जाता है और उस सूत्र के पूर्ण होने तक आधा प्रतिक्रमण हो जाता है इस प्रकार सूर्य के आधार पर बताया गया यह समय उचित मालूम होता है। शंका- कोई भी धार्मिक क्रिया करने या उसकी आज्ञा लेने से पूर्व खमासमण क्यों दिया जाता है ? समाधान— खमासमण विनय भाव का प्रतीक है, अतः खमासमण देने से विनय भाव एवं लघुता प्रकट होती है जो कि सर्व दृष्टि से उचित एवं लाभदायक भी है अतः किसी भी शुभ क्रिया से पूर्व खमासमण दिया जाना चाहिए । शंका- स्थापनाचार्यजी को तीन या पाँच मुँहपत्ति में लपेटकर क्यों रखते हैं ? समाधान- स्थापनाचार्यजी के नीचे में दो या चार मुँहपत्ति आसन के प्रतिरूप में उन्हें बहुमान एवं उच्च आसन देने के भाव रूप तथा ऊपर में एक मुहपत्ति छत्र या चंदरवा पूठिया के भाव रूप रखी जाती है। इससे आचार्य की महिमा प्रतिपादित होती है । कुछ परम्पराओं में तीन मुँहपत्ति रत्नत्रयी के प्रतिरूप

Loading...

Page Navigation
1 ... 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312