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प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका-समाधान ...197 की स्वीकृति नहीं है। पाप को तो सर्वथा त्याज्य ही माना है इसीलिए नवतत्त्व में पाप रूप आस्रव तत्त्व को भी हेय की कोटि में रखा है अत: किसी भी दृष्टि से पापाचरण करने योग्य नहीं है। एक जगह कहा गया है___'प्रथम पदे पडिक्कमणुं भाख्यं, पाप तणुं अण करवू'- उत्सर्ग मार्ग से पापत्याग करना ही प्रतिक्रमण है तथा अपवाद रूप में पापालोचना, पाप प्रायश्चित्त, मिच्छामि दुक्कडं आदि क्रियाएँ प्रतिक्रमण है।
शंका- प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त से ही सर्व पाप क्षीण हो जाते हैं तो फिर पाप त्याग की आवश्यकता क्या है?
समाधान- यदि इस तथ्य को मान लें कि प्रतिक्रमण से सभी पापों का निर्जरण हो जाता है अत: पाप त्याग आदि की आवश्यकता नहीं है। उस स्थिति में ब्रह्मचर्य व्रत आदि ग्रहण करने का भी कोई अर्थ नहीं रहेगा। दीक्षा धर्म अंगीकार करना भी निरर्थक हो जायेगा। घर बैठे-बैठे प्रतिक्रमण करने मात्र से दुष्कर्मों का क्षयकर जीव सिद्ध हो जायेगा, परन्तु आचरण से सर्व पापों का त्याग किए बिना मोक्ष सम्भव नहीं है। इसीलिए तो भरत चक्रवर्ती को केवलज्ञान होने के बाद भी साधु वेश न होने से वन्दन नहीं किया गया। अत: उन्हें भी साधु धर्म अंगीकार करना पड़ा। इस वर्णन से यह सिद्ध होता है कि पाप कार्य करते रहने और तदनन्तर प्रतिक्रमण कर लेने से पापकर्म हल्के और कमजोर हो सकते हैं, मगर पूर्ण रूप से नष्ट होना असम्भव है।
शंका- प्रतिक्रमण क्रिया' से कौन से पापों का नाश होता है?
समाधान- प्रतिक्रमण करने से पापकर्म नष्ट होते हैं यह सत्य है। परन्तु कोई व्यक्ति मनमर्जी से दुष्कार्यों में प्रवृत्त रहे और प्रतिक्रमण करके निर्जरा कर ले, ऐसा कोई नियम नहीं है। पाप प्रक्षालन की क्रिया भावों की तरतमता के आधार पर होती है। इसलिए यह समझ लेना आवश्यक है कि यदि आत्मपरिणति उच्च कोटि की हो तो इस क्रिया से सभी कर्मों को क्षीण किया जा सकता है और मन्द-मन्दतर हो तो तद्रूप कर्म निर्जरा होती है। इस प्रकार निश्चित रूप से यह कहना शक्य नहीं कि प्रतिक्रमण आवश्यक से अमुक पाप दूर होते हैं।
शंका- भव आलोचना क्यों? समाधान- स्वयं के द्वारा इहभव में किये गये समस्त पापों को सद्गुरु के