Book Title: Pratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 265
________________ प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका समाधान ... 203 अंतिम तीर्थंकर के श्रमण- श्रमणी ऋजु जड़ और वक्र जड़ स्वभावी होते हैं। अतः वे कृत दोषों का शुद्ध मन से शीघ्र पश्चात्ताप नहीं करते इसी कारण उनके लिए प्रात: और सायंकाल दोनों समय प्रतिक्रमण करने का विधान किया गया है। मध्यवर्ती 22 तीर्थंकर के साधु-साध्वी कृत अपराधों का तुरन्त 'मिच्छामि दुक्कड' कर लेते हैं। शंका- प्रतिक्रमण आवश्यक से पूर्व सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव और वन्दना आवश्यक करना जरूरी क्यों है? सीधा प्रतिक्रमण ही कर लिया जाये तो समय की बचत होगी और प्रतिक्रमण भी हो जायेगा ? समाधान– सामायिक आदि तीन आवश्यकों की क्रिया के पश्चात प्रतिक्रमण आवश्यक का विधान इसलिए है कि सामायिक या समभाव आए बिना प्रतिक्रमण रूप प्रायश्चित्त की योग्यता ही नहीं आती है। साथ ही चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति एवं गुरु आशातना की क्षमा मांगे बिना भाव - प्रतिक्रमण नहीं किया जा सकता। पापों की आलोचना करने से पूर्व समभाव एवं विनयशीलता का होना परमावश्यक है। अत: प्रतिक्रमण से पूर्व तीनों आवश्यक की आराधना जरूरी है। शंका- प्रतिक्रमण सभी पापों के प्रायश्चित्त रूप में किया जाता है, फिर मिथ्यात्व आदि पाँच का ही प्रतिक्रमण क्यों बतलाया गया है ? समाधान- मिथ्यात्व आदि पाँच प्रकार के प्रतिक्रमणों में सभी पापों का समावेश हो जाता है, जैसे अव्रत के प्रतिक्रमण में प्राणातिपात आदि सभी पापों का समावेश हो जाता है, प्रमाद में आत्म स्वभाव के विपरीत सभी विभावों का अन्तर्भाव हो जाता है। इस प्रकार उक्त पाँचों में सभी पाप प्रवृत्तियों का प्रतिक्रमण हो जाता है। शंका- प्रतिक्रमण किसी भी समय क्यों नहीं किया जा सकता ? समाधान - तीर्थंकर परमात्मा की आज्ञा है कि दिनभर में लगे दोषों की आलोचना, दिवस के अन्त में (सायंकाल में) और रात्रिभर में लगे दोषों की आलोचना रात्रि के अन्त में सूर्योदय से पूर्व करनी चाहिए। इसीलिए प्रतिक्रमण का एक निश्चित समय रखा गया है। दूसरा, कोई भी कार्य निर्धारित समय या एक समय पर करने से अधिक लाभकारी भी होता है तथा उसमें भावों की श्रृंखला भी अधिक जुड़ती है । यों तो भाव प्रतिक्रमण कभी भी किया जा सकता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312