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प्रतिक्रमण सूत्रों का प्रयोग कब और कैसे ? ...83
मुद्रा में बोला जाता है। हथेली बाहर की तरफ कुछ झुकी हुई होती है। इस मुद्रा का प्रयोग करते समय आराधक के मन में साक्षी रूप में गुरु की उपस्थिति के भाव उत्पन्न होते हैं जिससे धर्म क्रिया में स्फूर्ति एवं जागृति रहती है।
3. खमासमण सूत्र- यह सूत्र पंचांग प्रणिपात मुद्रा में बोला जाता है क्योंकि यह मुद्रा अहंकार का विसर्जन कर नम्रता भाव उत्पन्न करती है तथा इससे समर्पण का गुण विकसित होता है।
4. सुखपृच्छा सूत्र - इसे अर्धावनत मुद्रा में बोलते हैं क्योंकि गुरु के तप-संयम-स्वास्थ्य का कुशल क्षेम किंचित झुककर ही पूछा जा सकता है। इस मुद्रा से अहंकार का नाश और विनय गुण का सर्जन होता है जो यथार्थ सुखपृच्छा के लिए आवश्यक है।
5. अब्भुट्ठिओमि सूत्र - यह सूत्र हथेली नीचे रखते हुए प्रणिपात मुद्रा में बोला जाता है। इस मुद्रा के द्वारा आतों और जठर की निर्बलता, यकृत की विकृति तथा स्वादुपिण्ड की शिथिलता दूर होती है। रीढ़ की स्थायित्व शक्ति बढ़ती है और पेट एवं सीने के स्नायु बलवान बनते हैं जो गुरुवन्दन आदि धर्म क्रियाओं के लिए उपयोगी है। इस मुद्रा से श्रद्धा गुण विकसित होता है जिससे गुरु प्रति सही रूप में क्षमायाचना की जा सकती है। इस मुद्रा में दायीं हथेली को भूमि पर सीधा रखते हुए गुरु के चरण स्पर्श के भाव व्यक्त किये जाते हैं।
6. ईरियावही, तस्स उत्तरी, अन्नत्थ, पुक्खरवरदी, सिद्धाणं बुद्धाणं, अरिहंत चेइयाणं आदि सूत्र - ये सभी सूत्र ऊर्ध्वस्थित ( खड़े होने की ) मुद्रा में बोले जाते हैं। इस मुद्रा से पीठ सशक्त और चेहरा तेजस्वी बनता है तथा इन सूत्रों के बीच-बीच में हृदय एवं मन को झुकाने से विनम्र गुण भी पैदा होता है जो देववन्दन एवं अतिचार विशुद्धि आदि के लिए अत्यन्त जरूरी है। इन सूत्रों को बोलते वक्त सीधे खड़े रहने से दुष्कृत की स्वीकृति में वीरता का भाव प्रकट होता है।
7. करेमिभंते सूत्र - यह सूत्र अर्धावनत अथवा याचक मुद्रा में बोला जाता है क्योंकि इस सूत्र के द्वारा अन्तर्मन से सावद्य व्यापार का त्याग और सामायिक चारित्र को ग्रहण करते हैं। इस मुद्रा से पाप कार्यों के प्रति ग्लानि एवं समता धर्म के प्रति अहोभाव सहज उत्पन्न होता है।
8. लोगस्स सूत्र - यह सूत्र नमस्कार मुद्रा और कायोत्सर्ग मुद्रा में बोला जाता है। कायोत्सर्ग मुद्रा में दृष्टि को नासिका के अग्र भाग पर केन्द्रित करने से