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136... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सावत्सरिक प्रतिक्रमण की विधि भी पूर्ववत ही जाननी चाहिए । केवल पापों की शुद्धि निमित्त किये जाने वाले कायोत्सर्ग की संख्या में भिन्नता है 1 52
तेरापंथी परम्परा में प्रचलित पंच प्रतिक्रमण विधि
स्थानकवासी परम्परा के समान तेरापंथी परम्परा में भी पाँचों प्रतिक्रमण की विधि एक ही है और उन सभी में कहे जाने वाले सूत्रपाठ भी समान हैं। दूसरा, स्थानकवासी और तेरापंथी दोनों परम्पराओं की प्रतिक्रमण विधि में भी परस्पर समरूपता है केवल भिन्न-भिन्न सामाचारी की दृष्टि से कुछ मौलिक अन्तर देखे जाते हैं जो स्वाभाविक है।
इस परम्परा में भी पूर्ववत भिन्न-भिन्न प्रतिक्रमणों के अनुसार सूत्र पाठों में देवसिक, राइय, पक्खिय आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है शेष विधि और पाठ सभी प्रतिक्रमणों में समान हैं।
तीसरा, आलोचना शुद्धि के कायोत्सर्ग प्रत्येक प्रतिक्रमण में भिन्न-भिन्न होते हैं। यहाँ प्रतिक्रमण विधि का निरूपण दैवसिक प्रतिक्रमण को लक्षित करके किया जायेगा। शेष रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की विधि उसी के समान समझें।
श्रावक की अपेक्षा
प्रतिक्रमण की पूर्व विधि
सर्वप्रथम मन, वचन एवं काया को स्थिर कर तिक्खुत्तो के पाठ से गुरु को तीन बार वन्दन करें। फिर चतुर्विंशतिस्तव की अनुमति लेकर ईर्यापथिकसूत्र तथा कायोत्सर्ग प्रतिज्ञासूत्र का उच्चारण कर लोगस्ससूत्र का कायोत्सर्ग करें। फिर 'नमो अरिहंताणं' कहकर कायोत्सर्ग पूर्ण करें।
उसके बाद 'चतुर्विंशतिस्तव' पाठ का उच्चारण कर दाएं घुटने को भूमि पर टिकाते हुए एवं बाएं घुटने को भूमि से चार अंगुल ऊँचा रखकर 'शक्रस्तव' का पाठ कहे।
प्रथम आवश्यक - तदनन्तर तिक्खुत्तो के पाठ से तीन बार वन्दन कर प्रतिक्रमण की आज्ञा लें और 'मत्थएण वंदामि' पूर्वक प्रथम सामायिक आवश्यक की आज्ञा' - ऐसा कहे ।