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166... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
करते हैं। इसके बाद सम्पूर्ण अतिचारों की शुद्धि हो जाने पर कृतज्ञता और खुशी दर्शाने के लिए मंगल के रूप में लोगस्ससूत्र बोलते हैं।
परवर्ती काल में संयुक्त की गई विधि
तत्पश्चात खरतरगच्छ की वर्तमान सामाचारी के अनुसार सकल श्री संघ में किसी प्रकार का मानसिक क्षोभ, वाचिक संघर्ष आदि छोटे-छोटे उपद्रव न हो, तदहेतु 'क्षुद्रोपद्रव उड्डावणार्थं करेमि काउस्सग्गं' बोलकर चार लोगस्स का कायोत्सर्ग किया जाता है।
उसके बाद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की सभी परम्पराओं में दो खमासमण पूर्वक स्वाध्याय का आदेश लेकर सज्झाय बोली जाती है। यदि साधु-साध्वी हो तो औपदेशिक सज्झाय बोलते हैं। गृहस्थ के लिए सज्झाय के रूप में तीन नवकार मन्त्र बोलने की परम्परा है।
प्रतिक्रमण के अन्त में सज्झाय बोलने का अभिप्राय क्या है?
मुनि और गृहस्थ को रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करना चाहिए, ऐसी अर्हत आज्ञा है। प्रमाद वश स्खलना न हो जाए, इस तथ्य को ध्यान रखते हुए पूर्वाचार्यों ने प्रतिक्रमण की क्रिया के साथ स्वाध्याय को जोड़ दिया है ताकि इस नियम का पूर्णत: खण्डन न हो । यद्यपि प्रतिक्रमण काल में पूर्ण प्रहर स्वाध्याय नहीं होता है फिर भी सज्झाय के रूप में दशवैकालिक आदि आगमों की 5 गाथा अथवा तीन नवकार मन्त्र कहकर प्रभु आज्ञा का बहुमान किया जाता है।
उसके बाद खरतरगच्छ की प्रचलित परम्परा में श्री स्तंभन पार्श्वनाथ का चैत्यवन्दन तथा श्री संघ की शांति निमित्त चार लोगस्स का कायोत्सर्ग करते हैं। फिर चारों गुरुदेव की आराधना निमित्त एक साथ चार लोगस्स अथवा प्रत्येक का नाम लेते हुए चार-चार नवकारमन्त्र का कायोत्सर्ग करते हैं। तत्पश्चात चउक्कसाय का चैत्यवन्दन एवं लघुशांति पाठ बोलकर सामायिक पूर्ण करते हैं।
तपागच्छ आदि परम्पराओं में सज्झाय तक की विधि करने के पश्चात दुःखक्षय एवं कर्मक्षय निमित्त चार लोगस्स का कायोत्सर्ग कर सकल संघ की शांति के लिए किसी एक के द्वारा लघु शांतिस्तव बोला जाता है और दूसरे सभी कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित रहकर सुनते हैं। उसके बाद प्रकट लोगस्स बोलते हैं। फिर सामायिक पूर्ण करने की विधि प्रारम्भ कर बीच में 'चउक्कसाय' का चैत्यवन्दन करते हैं। दैवसिक - प्रायश्चित्त सम्बन्धी कायोत्सर्ग के पश्चात की