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प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका-समाधान
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प्रतिक्रमण स्थापना- उसके बाद 'इच्छकार सुहराई सूत्र' द्वारा गुरु को सुखशाता पूछकर 'सव्वस्सवि सूत्र' से प्रतिक्रमण की स्थापना की जाती है। तत्पश्चात प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में देववन्दन रूप मंगल के अभिप्राय से 'नमुत्थुणं सूत्र' बोला जाता है ।
प्रथम आवश्यक- इसके पश्चात प्रथम सामायिक आवश्यक के लिए करेमि भंते ... सूत्र आदि कहकर क्रमश: चारित्राचार - दर्शनाचार - ज्ञानाचार में लगे दोषों की शुद्धि के लिए अनुक्रम से एक लोगस्स, एक लोगस्स और पंचाचार की आठ गाथाओं का चिंतन किया जाता है।
शंका- दैवसिक प्रतिक्रमण में चारित्राचार की शुद्धि के लिए दो लोगस्स का कायोत्सर्ग किया जाता है तब रात्रिक प्रतिक्रमण में एक लोगस्स का कायोत्सर्ग क्यों ?
समाधान - दिन की अपेक्षा रात्रि में अल्प प्रवृत्ति होने से अल्प दोष की सम्भावना रहती है। अतः एक लोगस्स सूत्र के चिंतन से उतने दोष दूर हो जाते हैं इसलिए एक लोगस्स का ही ध्यान करते हैं।
शंका- पंचाचार सम्बन्धी दोषों से विमुक्त होने के लिए आठ गाथाओं ( अतिचारों) का चिंतन प्रथम कायोत्सर्ग में न करके तीसरे कायोत्सर्ग में ही क्यों किया जाता है ?
समाधान- इसका उत्तर यह है कि प्रथम कायोत्सर्ग में निद्रा का कुछ उदय होना सम्भव है जिस कारण अतिचारों का अच्छी तरह से चिंतन नहीं किया जा सकता। इसीलिए तीसरे कायोत्सर्ग में चिन्तन करते हैं।
शंका- चारित्र सम्बन्धी अतिचारों का चिंतन तो तीसरे कायोत्सर्ग द्वारा होता है, फिर भी चारित्र शुद्धि के कायोत्सर्ग में एक लोगस्स के कायोत्सर्ग क्यों किया जाता है ?
समाधान- शुद्धि के लिए कायोत्सर्ग आवश्यक है। कायोत्सर्ग में शुभ चिंतन की प्रधानता है फिर वह चाहे नमस्कार मन्त्र का हो, लोगस्ससूत्र का हो या तपादि का हो। दोषों के चिंतन पूर्वक किया गया कायोत्सर्ग ज्ञान एवं चारित्र सम्बन्धी दोषों की भी शुद्धि कर सकता है। इसलिए उपर्युक्त तर्क निराश्रित है।
तीसरा- चौथा आवश्यक - तदनन्तर तीसरे और चौथे आवश्यक की क्रिया होती है। इनके प्रयोजन दैवसिक प्रतिक्रमण की विधि हेतु के समान ही जानने चाहिए।