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176... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
समाधान- ऐसा मानना अनुचित है, क्योंकि पूर्वधर आचार्यों के समय से यह कायोत्सर्ग किया जाता है। फिर आवश्यक टीका और पंचवस्तुक आदि में श्रुतदेवता आदि के कायोत्सर्ग एवं उन्हें नमस्कार करने के स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होते हैं जिसका प्रमाण इस प्रकार है
आवस्सय लहुगुरु, वित्तिचुण्णि भासेसु पक्खियाईसु। पवयणसारूद्वारे, सुयदेवयाइ उस्सग्गो।। प्रणिपत्य जिनवरेन्द्र, वीरं श्रुतदेवतां गुरुन् साधून् । आवश्यकस्य विवृत्तिं, गुरुपदेशादहं वक्ष्ये ।।
आयरणा सुयदेवय, माईणं होई उस्सग्गो ।। उक्त सन्दर्भो से श्रुत देवता आदि के कायोत्सर्ग की सुस्पष्ट सिद्धि हो जाती है।
शंका- प्रतिक्रमण एक आध्यात्मिक क्रिया है और वह विरतिधर मुनि एवं गृहस्थों के द्वारा ही की जा सकती है तब उस क्रिया के अन्तर्गत अविरत सम्यग्दृष्टि देवों का स्मरण एवं स्तुति क्यों?
समाधान- सम्यगदृष्टि देवी-देवता विरतिधर नहीं है फिर भी अरिहंत परमात्मा एवं उनके शासन के प्रति भक्ति निष्ठ होते हैं। जिस तरह विशिष्ट प्रसंगों में सत्ताधिकारियों को याद करने पर, आमन्त्रण देने पर या उनका उल्लेख करने पर उनकी तरफ से प्रत्येक कार्य में सहयोग प्राप्त होता है तथा अनिष्ट आशंकाएँ दूर होती है। इसी तरह जिनधर्म समर्पित देवों का स्मरण करने से उनकी अद्भुत शक्ति का हमारी ओर संचरण होता है जिससे शुभ कार्यों में संभावित विघ्न दूर हो जाते हैं इसलिए सम्यक्त्वी देवों को याद करना अनुचित नहीं है और स्मरण करने मात्र से विरति भाव दूषित नहीं हो जाता। यदि उन्हें वन्दन किया जाए तो व्रत आदि में दोष लग सकता है लेकिन वन्दन नहीं करते हैं। यही वजह है कि 'वैयावच्चगराणं सूत्र' बोलने के पश्चात सीधा अन्त्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग कर लेते हैं, वंदणवत्तियाए सूत्र नहीं बोलते हैं।
शंका- दैवसिक प्रतिक्रमण प्रारम्भ करने से पहले ही दिवस चरिम प्रत्याख्यान कर लेते हैं फिर छठे आवश्यक के रूप में मुहपत्ति प्रतिलेखन एवं द्वादशावर्त्तवंदन आदि क्यों?
समाधान- पांचवाँ कायोत्सर्ग आवश्यक घाव को समाप्त करने के लिए मरहमपट्टी रूप है। इससे घाव मिट जाता है किन्तु उसके ऊपर प्रत्याख्यान