________________
162... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
एवं विघ्नों को दूर करते हैं। इसी के साथ जैन संघ की प्रभावना एवं आराधना में भी सहायक बनते हैं अतः क्षेत्र देवता के प्रति कृतज्ञता दर्शाने हेतु उनकी आराधना एवं स्तुति की जाती है ।
.
तीसरा कारण यह है कि साधुओं को अचौर्य महाव्रत के निर्मल पालन के लिए बार-बार अवग्रह की याचना करनी चाहिए अर्थात जिस क्षेत्र में रहना हो उसकी अनुज्ञा प्राप्त करनी चाहिए। क्षेत्र देवता की आराधना से यह प्रयोजन पूर्ण हो जाता है तथा इससे तीसरे महाव्रत की दूसरी भावना का परिपालन भी होता है। विरति भाव में उपस्थित श्रावक-श्राविकाएँ आदि अविरत देवी - देवता का कायोत्सर्ग कैसे कर सकते हैं?
यह कायोत्सर्ग औचित्य वृत्ति के कारण करते हैं। देवी-देवता विघ्न निवारण आदि द्वारा आराधना में सहायक बनते हैं तथा जिनशासन की प्रभावना में निमित्तभूत होते हैं, इसलिए प्रतिक्रमण में कृतज्ञ भाव के साथ इनका कायोत्सर्ग करना उचित है।
जब हम कायोत्सर्ग करें उस समय देवताओं का उपयोग हमारी तरफ हो ही, ऐसा जरूरी नहीं? तब उनका स्मरण करने पर भी वे सहायक कैसे बन सकते हैं?
इसका समाधान यह है कि यदि यश नामकर्म का उदय हो तो अपने पुण्य से दूसरों के मन में यशोगान के भाव स्वतः उठते हैं। उस समय 'अमुक का पुण्य है इसलिए मुझे यशोगान करना चाहिए, ऐसा ध्यान आना जरूरी नहीं है' उसी तरह देवताओं के स्मरण के लिए किया गया कायोत्सर्ग जिनोक्त होने से कायोत्सर्ग अर्थी को तद्रूप पुण्य का उपार्जन होता है । फिर भले ही देवता का उपयोग उस तरफ न भी हो, तब भी आराधक का पुण्य देवता को सहायता करने हेतु उत्प्रेरितं करता है। इसलिए श्रुत देवी-देवता आदि का कायोत्सर्ग सार्थक है।
तदनन्तर मंगल रूप में एक नमस्कार मन्त्र बोला जाता है।
प्रतिक्रमण में बार-बार मंगल के लिए पंच परमेष्ठी को नमस्कार क्यों? तथा पुनः पुनः मंगल की आवश्यकता भी क्यों है?
सर्वप्रथम कारण तो यह है कि शुभ क्रियाओं में विघ्न की सम्भावना अधिक रहती है। यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि प्रतिक्रमण तो दैनिक क्रिया है उसमें विघ्न कैसे ? विघ्न तीन प्रकार के होते हैं- मानसिक, वाचिक और