________________
अध्याय-5
प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका-समाधान
प्रतिक्रमण जैन आचार पक्ष का अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। आवश्यक क्रियाओं का संपादन यदि मात्र परम्परा अनुकरण या लोक प्रवाह के रूप में किया जाए तो वह यथोचित फल नहीं दे सकता। एक सामान्य क्रिया में भी यदि उसके महत्त्वपूर्ण रहस्यों आदि का पता हो तो उसे करने के हाव-भाव एवं रुचि में बहुत अंतर आ जाता है। अन्यथा वही दैनिक क्रियाएँ भाररूप लगने लगती है। जैसे कि जो ग्राहक मोटी आसामी का हो उसे दुकानदार जिस उत्साह से माल दिखाता है उसके परिणाम माल नहीं खरीदने वाले ग्राहक के प्रति वैसे नहीं देखे जाते। इसी तरह साध्य क्रियाओं के महत्त्व एवं लाभ के बारे में पता हो तो क्रिया करने का आनंद ही अलग होता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत अध्याय में प्रतिक्रमण विधि के रहस्यों को उजागर किया जा रहा है।
दैवसिक प्रतिक्रमण विधि के हेतु प्रतिक्रमण हेतु सर्वप्रथम सामायिक ग्रहण करना अनिवार्य क्यों?
विरति जीवन में की गई क्रिया पुष्टिकारक और फलदायी होती है। सामायिक के द्वारा पापों का प्रतिज्ञा पूर्वक त्याग कर समभाव की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। समभावयुत स्थिति में ही पापों का यथार्थ पश्चात्ताप और मिच्छामि दुक्कडं पूर्वक वास्तविक प्रतिक्रमण होता है इसलिए प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में सामायिक ली जाती है। पाप प्रवृति छूटे बिना दुष्कार्यों का पश्चात्ताप नहीं हो सकता। सामायिक पाप प्रवृत्ति को छोड़ने का प्रमुख चरण है। जिस प्रकार कचरा निकालने के पहले यदि धूल आदि के अन्दर आने की सम्भावना हो तो मकान के खिड़कीदरवाजों को बंद कर दिया जाता है, डाईबिटीज के रोगी को शूगर घटाने की दवा के साथ-साथ नई शूगर बने नहीं इसलिए मिष्ठान्न आदि खाने का निषेध कर दिया जाता है उसी तरह नये पाप कार्यों को रोकने के लिए पाप व्यापार के त्याग रूप प्रतिक्रमण के पूर्व सामायिक लेना अनिवार्य है।