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126... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
प्रकार ज्ञात होती है
जहाँ तक आगमवर्ती साहित्य का प्रश्न है वहाँ किसी भी आगम में पाक्षिक प्रतिक्रमण विधि प्राप्त नहीं होती है।
जहाँ तक आगमेतर टीका साहित्य का सवाल है वहाँ आवश्यकनियुक्ति एवं चूर्णि में पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण क्यों करना चाहिए? प्रतिक्रमण के स्थान कितने हैं? प्रतिक्रमण के प्रकार कौनसे हैं? इत्यादि चर्चा की गई है किन्तु पाक्षिक विधि का स्पष्ट स्वरूप नहीं मिलता है।35
तदनन्तर विक्रम की दसवीं शती पर्यन्त ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो आचार्य हरिभद्रकृत पंचवस्तुक में पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण विधि का उल्लेख तो नहीं मिलता है, किन्तु क्षेत्रदेवता और भवनदेवता के कायोत्सर्ग के सम्बन्ध में यह अवश्य कहा गया है कि चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में क्षेत्रदेवता का तथा पाक्षिक प्रतिक्रमण में भवनदेवता का कायोत्सर्ग करना चाहिए। कुछ गच्छ-परम्परा के साधु चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में भी भवनदेवता का कायोत्सर्ग करते हैं। इससे सूचित होता है कि विक्रम की आठवीं शती तक पाक्षिक प्रतिक्रमण-विधि का एक स्वरूप निश्चित हो चुका था।36
जब हम मध्यकालीन साहित्य का मनन करते हैं तो वहाँ हेमचन्द्राचार्यकृत योगशास्त्र,37 नेमिचन्द्रसूरिकृत प्रवचनसारोद्धार,38 श्रीचन्द्राचार्य संकलित सबोधासामाचारी,39 तिलकाचार्य सामाचारी,40 जिनप्रभसूरिकृत विधिमार्गप्रपा,41 वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर+2 आदि ग्रन्थों में पाक्षिक प्रतिक्रमण का एक विधिवत स्वरूप अवश्य प्राप्त होता है। इससे ध्वनित होता है कि यह विधि काल के प्रभाव से ग्रन्थों के अस्तित्व में आई है। इन सभी आचार्यों ने पाक्षिक विधि का स्वरूप लगभग समान रूप से ही उल्लिखित किया है। हाँ! श्रुतदेवता आदि के कायोत्सर्ग, साधु एवं गृहस्थ की पारस्परिक क्षमायाचना, पाक्षिक तप दान आदि के सम्बन्ध में आंशिक भेद जरूर है।
जैसे कि प्रवचनसारोद्धार में भवनदेवता कायोत्सर्ग का उल्लेख नहीं है। तिलकाचार्य सामाचारी में श्रावक द्वारा क्षमायाचना करने की पृथक् विधि बतलाई गई है किन्तु अजितशांति पाठ का निर्देश नहीं है, जबकि योगशास्त्र, विधि प्रपा, आचारदिनकर आदि में अजितशान्ति बोलने का उल्लेख किया गया है।
जब हम उत्तरकालीन साहित्य का आलोडन करते हैं तो साधुविधिप्रकाश