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प्रतिक्रमण की मौलिक विधियाँ एवं तुलनात्मक समीक्षा ...117 है।20 तत्पश्चात योगशास्त्र टीका में यह विधि प्रारम्भिक चैत्यवन्दन से लेकर दैवसिक प्रायश्चित्त सम्बन्धी कायोत्सर्ग पर्यन्त यथावत कही गई है।21
तदनु श्री चन्द्राचार्यकृत सुबोधा सामाचारी में चैत्यवन्दन से स्तवन तक दैवसिक प्रतिक्रमण करने का निर्देश है। इसमें यह विधि गाथाओं के द्वारा संक्षेप में दर्शायी गई है जो वर्तमान प्रचलित विधि की तुलना में क्षेत्रदेवता के कायोत्सर्ग को छोड़कर शेष विधि-क्रम में समान है।22
तत्पश्चात तिलकाचार्य की विधि सामाचारी में दैवसिक प्रतिक्रमण चैत्यवन्दन से लेकर सज्झाय तक बतलाई गई है। उसमें क्षेत्र देवता की आराधना को आवश्यक नहीं माना है। इसी के साथ स्तवन के पश्चात दैवसिक प्रायश्चित्त सम्बन्धी कायोत्सर्ग के स्थान पर दुःख क्षय कर्म क्षय का कायोत्सर्ग, फिर आचार्यादि तीन को वन्दन, फिर दो आदेश पूर्वक सज्झाय- इस क्रम से बाद की विधि का उल्लेख है। शेष विधि इससे पूर्ववर्ती ग्रन्थों एवं प्रचलित स्वरूप के अनुरूप ही उपदिष्ट है।23 ___इसी क्रम में विधिमार्गप्रपाकार ने चैत्यवन्दन से लेकर श्री सेढ़ी तटिनी तटे चैत्यवन्दन तक दैवसिक प्रतिक्रमण का निर्देश किया है।24
तदनन्तर आचारदिनकर में चैत्यवंदन से लेकर सज्झाय तक दैवसिक प्रतिक्रमण बतलाया गया है तथा इसमें क्षेत्रदेवता के कायोत्सर्ग स्थान पर गच्छान्तर परम्परा से शासनदेवता, वैरोट्या आदि के कायोत्सर्ग एवं स्तुति करने का भी निर्देश किया है।25। ___भावदेवसूरिकृत यतिदिनचर्या में दैवसिक विधि मुनि सामाचारी के अनुसार चैत्यवन्दन से सज्झाय तक कही गई है।26
उसके पश्चात साधुविधिप्रकाश में यह विधि वर्तमान में प्रचलित विधि के समान ही दर्शायी गई है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इस समय में प्रवर्तित दैवसिक-प्रतिक्रमण विधि प्राचीन ग्रन्थों के आधार से संयोजित साधुविधिप्रकाश के अनुसार की जाती है। पूर्ववर्ती ग्रन्थों की अपेक्षा इसमें कुछ नवीन तथ्य इस प्रकार हैं1. प्रारम्भिक चैत्यवन्दन के रूप में जयतिहुअण स्तोत्र बोलना। 2. देववन्दन करते समय पहली-चौथी स्तुति के पूर्व 'नमोऽर्हत्.' कहना। 3. नमोस्तु वर्धमानाय स्तुति के पहले 'नमोऽर्हत्.' कहना।