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104... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
तदनन्तर साधु या पौषधधारी हो तो वस्त्र, वसति आदि की प्रतिलेखना करें। ___तुलना- जब हम वर्तमान प्रचलित प्रतिक्रमण विधि का पूर्व-परवर्ती ग्रन्थों से तुलना करते हैं तो उनमें समानता और भिन्नता क्या है? कौनसी विधि कब जुड़ी? किन ग्रन्थों में प्रतिक्रमण का क्या स्वरूप है? तथा इसमें कालक्रम से क्या-क्या परिवर्तन आए? इत्यादि जानकारी भी स्पष्ट हो जाती है।
सर्वप्रथम षडावश्यक से सम्बन्धित आवश्यक सूत्र में छह आवश्यक रूप प्रतिक्रमण सम्बन्धी सूत्रों के मूल पाठ ही प्राप्त होते हैं। इस आगम में प्रतिक्रमण विधि की चर्चा नहीं है।
तदनन्तर उत्तराध्ययनसूत्र में रात्रिक प्रतिक्रमण विधि का स्वरूप बतलाते हुए यह कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप सम्बन्धी रात्रिक अतिचार का अनुक्रम से चिन्तन करें। कायोत्सर्ग को पूर्णकर गुरु को वन्दना करें। फिर अनुक्रम से रात्रिक अतिचार की आलोचना करें। प्रतिक्रमण से नि:शल्य होकर गुरु को वन्दना करें, फिर सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करें आदि। इस उद्धरण से स्पष्ट होता है कि उत्तराध्ययनसूत्र में रात्रिक प्रतिक्रमण का मूल स्वरूप मात्र दिखलाया गया है तत्सम्बन्धी विधि की चर्चा नहीं है। ___ इसके पश्चात आचार्य हरिभद्रसूरि रचित पंचवस्तुक में यह विधि किंचित विस्तार से प्राप्त होती है। किस आचार की शुद्धि निमित्त कितने उच्छ्वासों का कायोत्सर्ग करना चाहिए? किस कायोत्सर्ग में क्या चिन्तन करना चाहिए? इस विषयक चर्चा आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक हरिभद्रीय टीका के पश्चात इसी ग्रन्थ में प्राप्त होती है।
वर्तमान में प्रतिक्रमणविधि का जो स्वरूप प्रचलित है वह लगभग पंचवस्तुक में प्राप्त है। इसमें प्रतिक्रमण स्थापना, सकलतीर्थ वंदना आदि कुछ क्रियाओं का निर्देश नहीं है। ___तत्पश्चात हेमचन्द्राचार्यकृत योगशास्त्र में प्रतिक्रमण स्थापना (सव्वस्सविसूत्र) से लेकर देववन्दन पर्यन्त की विधि पूर्ववत ही कही गई है। इसमें प्रारम्भिक कुस्वप्न-दुःस्वप्न का कायोत्सर्ग, जयउसामिय का चैत्यवंदन आदि एवं परवर्ती सीमंधर स्वामी का चैत्यवंदन आदि क्रियाओं का उल्लेख नहीं है।