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44... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
अभाव, सुख शांति आदि अनेक सद्गुणों की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि छह 'आवश्यकों' का जो क्रम है, वह विशेष कार्यकारण भाव की शृंखला पर स्थित है। उसमें उलट-फेर होने से उसकी वह स्वाभाविकता नहीं रहती, जो कि उसमें है । आवश्यक क्रिया की आध्यात्मिकता
जो क्रिया आत्मा के विकास को लक्ष्य में रखकर की जाती है, वही आध्यात्मिक क्रिया है। आत्मा के विकास का तात्पर्य उसके चारित्र आदि गुणों की क्रमशः शुद्धि करने से है । इस कसोटी पर कसने से यह निर्विवादतः सिद्ध होता है कि सामायिक आदि छहों 'आवश्यक' आध्यात्मिक हैं। क्योंकि सामायिक का फल पाप जनक व्यापार की निवृत्ति है, जो कि कर्म निर्जरा द्वारा आत्मा के विकास का कारण है।
चतुर्विंशतिस्तव का उद्देश्य गुणानुराग की वृद्धि करते हुए गुणों को प्राप्त करना है, जो कि कर्म-निर्जरा द्वारा आत्मा के विकास का साधन है।
वन्दन क्रिया के द्वारा विनय की प्राप्ति होती है, मान खण्डित होता है, गुरुजनों की पूजा होती है, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन होता है और श्रुतधर्म की आराधना होती है, जो कि अन्त में आत्मा के क्रमिक विकास द्वारा मोक्ष के कारण होते हैं। वन्दन करने वालों को नम्रता के कारण शास्त्र सुनने का अवसर मिलता है। शास्त्र श्रवण के माध्यम से क्रमशः ज्ञान, विज्ञान, प्रत्याख्यान, संयम, आस्रव, तप, कर्मनाश, अक्रिया और सिद्धि - इन नौ लाभों की प्राप्ति होती है। इसलिये वन्दन क्रिया आत्मा के विकास का असंदिग्ध कारण है । 11
आत्मा वस्तुतः पूर्ण शुद्ध और पूर्ण बलवान है, परन्तु वह अनादिकाल से अनेक दोषों की तहों से दब गया है, इसलिये जब वह ऊपर उठने का कुछ प्रयत्न करता है, तो उसके द्वारा अनादि अभ्यासवश भूलें हो जाना सहज है। वह जब तक उन भूलों का संशोधन न करें, तब तक इष्ट सिद्ध हो ही नहीं सकता। इसलिए पग-पग पर की हुई भूलों को याद करके प्रतिक्रमण द्वारा फिर से उन्हें न करने के लिये निश्चय कर लेता है। इस तरह से प्रतिक्रमण क्रिया का उद्देश्य पूर्व दोषों को दूर करते हुए पुनः से उन दोषों को नहीं करने का संकल्प करना है, जिससे कि आत्मा दोष मुक्त होकर धीरे-धीरे अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाये। इसी से प्रतिक्रमण क्रिया आध्यात्मिक है।