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प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ... 73
मूल में पश्चात्ताप ही है । यदि मन में पश्चात्ताप न हो और कठोर से कठोर प्रायश्चित्त स्वीकार भी कर लिया जाये तो आत्मशुद्धि नहीं हो सकती है। दण्ड का उद्देश्य देह-दण्ड नहीं है अपितु मन का दण्ड है अपनी भूल स्वीकार कर लेना और पश्चात्ताप कर लेना है । दण्ड प्राय: बाह्य स्तर पर आधारित होता है जबकि प्रायश्चित्त साधक की स्वयं अपनी तैयारी है। 48 प्रायश्चित्त करने वाला पाप का शोधन करने के लिए अन्तर्मन से उत्साहित होता है और उस आन्तरिक उत्साह के वेग से अपराधी की चेतना स्वयं विनम्र, सरल और निष्कपट बन जाती है। 'मिच्छामि दुक्कडं' भी एक प्रायश्चित है।
यदि वर्तमान स्थिति पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि आज प्रतिक्रमण का मूलभूत अभिप्राय समझने वाले अल्प रह गए हैं। कई जन ऐसे हैं जो प्रतिक्रमण तो करते हैं, 'मिच्छामि दुक्कडं' भी देते हैं, परन्तु फिर उसी पाप को करते रहते हैं। उससे निवृत्त नहीं होते । पाप करना और 'मिच्छामि दुक्कडं' देना, फिर पाप करना और 'मिच्छा मि दुक्कडं' देना, यह जीवन के अन्त तक चलता रहता है। परन्तु इससे आत्मशुद्धि के महामार्ग पर सामान्यतः प्रगति नहीं हो पाती है। इस प्रकार की बाह्य साधना को 'द्रव्य साधना' कहा जाता है।
उपाध्याय रमेशमुनि जी शास्त्री की वर्णन शैली के अनुसार केवल वाणी से 'मिच्छामि दुक्कडं' कहना और फिर उस पाप को करते रहना, उचित नहीं है। मन के मैल को साफ किए बिना और पुनः उस पाप को नहीं करने का दृढ़ निश्चय किए बिना खाली ऊपर से 'मिच्छामि दुक्कडं' कहने का कुछ अर्थ नहीं है। एक ओर दूसरों का दिल दुःखाने का काम करते रहें, हिंसा करते रहें, झूठ बोलते रहें और दूसरी ओर 'मिच्छामि दुक्कडं' देते रहें। इस प्रकार का यह 'मिच्छामि दुक्कडं' आत्मा को शुद्ध बनाने के बजाय अधिक अशुद्ध बना देता है। 49
प्रस्तुत सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि पापकर्म करने के बाद जब प्रतिक्रमण अवश्य करणीय है तब सरल मार्ग तो यह है कि पापकर्म किया ही न जाए। आध्यात्मिक दृष्टि से यही सच्चा प्रतिक्रमण है। 50 आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है कि जो साधक त्रिविध योग से प्रतिक्रमण करता है, जिस पाप के लिए ‘मिच्छामि दुक्कडं' देता है। फिर भविष्य में उस पाप को नहीं करता है, उसी का दुष्कृत्य निष्फल होता है अर्थात वही कृतदोषों से मुक्त होता है। 51 यदि