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प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...49 प्रतिक्रमण नहीं किया जाता, अपितु वंदित्तुसूत्र की 48वीं गाथा 'पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे अ पडिक्कमणं' के अनुसार निषिद्ध कार्य करने पर, उपदिष्ट या करणीय कार्य न करने पर, जिनवचन में अश्रद्धा करने पर एवं जिनेश्वरों के द्वारा प्रतिपादित तत्त्वज्ञान के विरुद्ध विचारों का प्रतिपादन करने पर प्रतिक्रमण करना चाहिए। प्रतिक्रमण करने सम्बन्धी इन चारों हेतुओं में मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरति और सर्वविरति सब आ जाते हैं। अत: अविरति हो अथवा विरतिधर सबके लिए प्रतिक्रमण आवश्यक है। इस वर्णन से प्रतिक्रमण की सार्वकालिक महत्ता सिद्ध हो जाती है।१५
यदि गहराई से अनुचिन्तन किया जाए तो इस साधना का मूल्य विविध दृष्टियों से आंका जा सकता है
दस कल्प की दृष्टि से- श्रमण के विविध कल्प हैं। कल्प का सामान्य अर्थ आचार या मुनि जीवन की सामाचारी प्रधान मर्यादा है। प्रशमरति के अनुसार जो कार्य ज्ञान, शील, तप आदि का उपग्रह करता है और दोषों का निग्रह करता है वह निश्चय दृष्टि से कल्प है और शेष अकल्प हैं।16 तत्त्वार्थसूत्र की टीका में कल्प शब्द का अर्थ 'काल' भी किया है, किन्तु यहाँ पर इसका अर्थ-मुनि की आचार मर्यादा एवं साधु सामाचारी में अवस्थान है।17 यह सुविदित है कि चौबीस तीर्थंकर के साधु एवं साध्वियों के लिए दस कल्प का विधान है, जिनका यथोक्त परिपालन सर्वकाल में अनिवार्य है। दस कल्प के नाम ये हैं- 1. आचेलक्य 2. औद्देशिक वर्जन 3. शय्यातरपिण्ड वर्जन 4. राजपिण्ड परिहार 5. कृतिकर्म 6. व्रत 7. ज्येष्ठ 8. प्रतिक्रमण 9. मासकल्प और 10. पर्युषणाकल्प।18
इन दशविध कल्पों में प्रतिक्रमण भी एक कल्प है। श्रमण अपने अपराध का निराकरण करने के लिए जो अनुष्ठान करता है, उसको 'प्रतिक्रमण' नाम का कल्प कहा गया है।
यहाँ यह भी स्पष्टत: ध्यातव्य है कि उक्त दस कल्पों में निम्न चार कल्प चौबीसों तीर्थंकरों के साधुओं के लिए अनिवार्य हैं- 1. शय्यातरपिण्ड वर्जन 2. व्रत 3. पर्याय ज्येष्ठ और 4 कृतिकर्म।
निम्न छह कल्प प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्यों के लिए अनिवार्य हैं किन्तु मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकर के साधुओं के लिए इनका परिपालन काल