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प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...65
हुआ समग्र जीवन को खण्डित कर सकता है। अतः पाप शल्य का उद्धरण करना अत्यावश्यक है और वह प्रतिक्रमण के द्वारा सहज हो जाता है।
प्रतिक्रमण करने से सर्वप्रथम काय योग की चंचलता का अवरोध होता है, फिर इन्द्रियों पर नियन्त्रण होता है। इसमें साधक समस्त वैभाविक परिणतियों से विरत होकर अन्तर्मुखी बन जाता है। प्रतिक्रमण आलोचना पूर्वक होता है। गुरु के समक्ष कृत दोषों को प्रकट करना आलोचना है। आलोचक को ज्ञात होना चाहिए कि वह छोटे-बड़े सभी अपराधों का गुरु को निवेदन करें। जैसे कोई रोगी चिकित्सक के पास जाकर यदि अपने रोग को साफ-साफ प्रकट नहीं करे तो वह अपना ही अनिष्ट करता है। इसी प्रकार जो साधक गुरु के निकट अपने दोषों को ज्यों का त्यों प्रकाशित नहीं करता है तो वह भी अपनी आत्मा का अनिष्ट करता है अतः पापशुद्धि के लिए आलोचना पूर्वक प्रतिक्रमण करना परम श्रेयस्कर है। प्रतिक्रमण की उपयोगिता को समझने के लिए यह भी मननीय है कि जैसे पैर में कांटा चुभ जाये तो मनुष्य को चैन नहीं पड़ता है, वह सतत वेदना का अनुभव करता है और शीघ्र से शीघ्र उस कांटे को निकाल देना चाहता है उसी प्रकार सच्चे साधक के द्वारा गृहीत व्रतों में किसी प्रकार का अतिचार लग जाये तो उसे तब तक चैन नहीं लेना चाहिए जब तक अपने गुरु के समक्ष निवेदन कर प्रायश्चित्त न कर लें। अतिचार रूपी शल्य को निकालने वाला ही वास्तविक शान्ति का अनुभव करता है इसलिए प्रतिक्रमण करने वाला साधक ही चारित्र का अखंड परिपालन करते हुए केवलज्ञान को प्राप्त कर सकता है ।
न्याय प्रणाली में अपराधी के दोष दूसरे बताते हैं, पर धर्म - शासन में दोषी स्वयं अपने दोष निश्छल भाव से गुरु के समक्ष कहकर आत्म शुद्धि करता है। धर्म - शासन में प्रायश्चित्त को भार नहीं माना जाता। आत्मार्थी शिष्य प्रायश्चित्त के द्वारा आत्म शुद्धि करने वाले गुरु को उपकारी मानता है और सहर्ष प्रायश्चित्त (दण्ड) का अनुपालन करता है। इससे प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त का महत्त्व निर्विवाद सिद्ध हो जाता है। 43
इस अवसर्पिणी काल के अन्तिम तीर्थंकर प्रभु महावीर की अन्तिम देशना के रूप में संकलित उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 29 की पृच्छा संख्या 11 में गौतम गणधर द्वारा पूछे गये प्रश्न का जवाब देते हुए कहा गया है कि अशुभ योग से व्रतों में छेद हो जाते हैं जो प्रतिक्रमण करने से पुनः निरूद्ध हो सकते हैं। प्रस्तुत