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थाय छ, संसार कर्ममय छ भने दुःखनुं कारण संसार छ, माटे राग-द्वेषादिक संसारसंततिनां मूळ छे. अप्रमत्त अने शान्त वैराग्ययुक्त (महापुरुष ) आ दोषना म्होटा संचयनी जाळ गमे एवी निबीड होय तो पण तेने समस्त रीते उखेडी नाखवाने समर्थ थाय छे. ५३-५
विवेचन-राग अने द्वेषवडे जेनुं मन विडंबित थयेलुं छे तेने केवळ (क्लिष्ट)कर्मनो बंध ज थाय छे, परंतु परलोकमा के मा लोकमां कोइ पण श्रेयकारी गुण संभवतो नथी. 'कर्मबंध शिवाय बीजो कोइ पण श्रेयकारी गुण केम संभवतो नथी ? ते बाबत हेतु सहित समजावता सता शास्त्रकार कहे छे. शब्दादिक विषयमा रागयुक्त सतो जे इष्ट चित्त परिणाम धारे छे के द्वेषयुक्त सतो अनिष्ट चित्त परिणाम स्थापे छे ते इष्टानिष्ट परिणाम तेने ज्ञानावरणादिक अष्टविध कर्मबंधनो हेतु थाय छे. सकषायपणाथी जीव कर्मबंधने योग्य पुद्गलो ग्रहे छे. 'आत्मप्रदेशो साथे कर्मना पुद्गलो शी रीते लागे छे ते समजावे छे.' तेलादिक स्निग्ध पदार्थथी खरडायेलां गात्रने जेम रजकणो आवी चोंटी जाय छे तेम रागद्वेष परिणामरूप स्निग्धतावडे आर्द्र थयेला जीवना प्रदेशोमां ज्ञानावरणादिक वर्गणायोग्य पुद्गलो प्रावी लागे छे. ___ हवे राग द्वेष विशिष्ट समस्त कर्मबंध हेतुओनो उपसंहार करता कहे छे.'
उपर जणावेला लक्षणबाळा राग अने द्वेष, चेतनने मुंझवे ते मोह, तत्वार्थभां अश्रद्धान लक्षण मिथ्यात्व अने कर्मआश्रवोथी अनिवृत्ति ते अविरति तथा विकथादिक पांच प्रकारना प्रमाद सहित अने मन, वचन तथा काययोगयुक्त एवा राग
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