Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 228
________________ अर्थ-देहमनोवृत्तिवडे करीने शरीर अने मन संबंधी दुःख थाय छ, तेना अभावे ते दुःखनो पण अभाव थाय के तेथी सिद्ध भगवानने सिद्धिनु अव्याबाधपणुं सप्रमाण सिद्ध थाय छे. २६५. विवेचन--शरीर अने मन तेनी वृत्ति वर्तन-सद्भाव एटले आत्मामां तेना संश्लेषथी मानसिक दुःख इष्टवियोगादि प्रसंगे थवा पामे छे. ते मन अने शरीरनो ज प्रभाव थयो छे तेथी तेनाथी थता दुःखनो पण अभाव थवाथी सिद्ध भगबानने स्वाभाविक अने अव्याबाध एवं सिद्धिसुख सादि अनंत मांगे प्राप्त थाय छे. २९५. यस्तु यतिर्घटमानः सम्यक्त्वज्ञानशीलसंपन्नः । वीर्यमनिगूहमानः शत्त्यनुरूप प्रयत्नेन ॥ २६६ ॥ संहननायुबलकालार्यसंपत्समाधिवैकल्यात् । कर्मातिगौरवाद्वा स्वार्थमकृत्वोपरममति ॥ २९७ ।। सौधर्मादिष्वन्यतमकेषु सर्वार्थसिद्धिचरमेषु । स भवति देवो वैमानिको सहर्द्धिद्युतिवपुष्कः ।। २६८ ॥ भावार्थ-जे मुनि सम्यक्त्व-ज्ञान अने शीलसंपन्न होइ, वीर्यने गोपव्या विना यथाशक्ति संयमक्रियामा प्रयत्न करता सता संघयण, आयुष्य, बळ, काळ, वीर्यसंपत्ति अने समाधिनी निर्बळताथी अथवा कर्मना अतिशयपणाथी स्वार्थ (मोक्ष ) सिद्ध कर्या विना मरण पामे छे ते सौधर्मादिक कोइपण देवलोकने विषे अथवा छेल्ला सवार्थसिद्धि विमानने विषे | महाऋद्धि भने अनंत पुतियुक्त (तेजोमय ) शरीरवाळा वैमानिक देव थाय छे. २९६-२६८. विवेचन-जे साधु शास्त्रोक्त सकळ क्रिया अनुष्ठानमा सदा प्रयत्नथी प्रवर्ते छः एटले के शंकादि शन्य रहित Jain Educntion inte For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org

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